वे दोनों लगातार गप्पें हांक रहे थे . दोनों की गप्पें एक दूसरे के प्रेम का अटूट विश्वास दिला रही थीं . एक ने कहा ``हम दोनों एक-दूसरे के लिए जान तक दे सकते हैं .``
दूसरे ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा,``हां-हां ! क्यों नहीं यार !``
कुछ ही क्षणों बाद उन दोनों को अपने घर में झगड़ा होने की सूचना मिली . दोनों अपने-अपने घर की ओर लपके. वहां जाने पर देखा कि उन्हीं दोनों के परिवार के सदस्य आपस में उलझे हुए हैं. यह देखते ही झगड़ा सुलझाने के बजाये, दोनों ही त्योरियां चढ़ाये अपने-अपने पारिवारिक खेमें में शामिल हो लिये.
Written By Lalan Singh, Posted on 05.06.2022
दिया बहुत कुछ है लाखों- हज़ारों बरस से
पर लिया कुछ नहीं है इस फर्श से
कितनी भोली कितनी सच्ची है प्रकृति
लालच किसका हमें, पैसों से भी अच्छी है प्रकृति
जानते नहीं हैं, तुम हो किस कश्मकश में
आदिमानव से लेकर आज का बेईमान दौर देखा
प्रकृति सा ना ज़रूरी कोई और देखा
घट गयी है जंगलों- वनों में पशु- पक्षियों की आबादी
किस काम की फ़िर ये बर्बादी
आज नदी- नालों का मटमैला पानी देखा
स्वच्छ थी बावड़ी कभी उस सा ना कोई सानी देखा
आज नज़रें दौडायें तो नज़ारे रोते हैं
सुना था मानव बुद्धिमान होते हैं
सबके हाथों में है आज हथियार
प्रकृति को नौचने के लिए हैं सब तैयार
किस काम का ये गाँव किस काम का गगनचुंबी इमारतों वाला बाज़ार
प्रकृति को समझ रक्खा है व्यापार
पिघलते ग्लेशियर गिरते पहाड़
सुनाई नहीं देती है तुम्हें प्रकृति की दहाड़?
फटते बादल उफान पर आ रही है सरिताएँ
पैसों के फेर में फँसे हैं कैसे करेंगे आने वाली पीढी की चिंताएँ?
गाँव- गाँव सड़कों का जाल बुना
प्रकृति के दर्द को किसने है सुना?
बढ़ते रहो विकास के पथ पर
रास्ता है हमने गलत चुना
दिन, दिवस मनाने की चली है प्रथा
देख प्रकृति कोई नहीं सुनेगा तुम्हारी व्यथा
किसी को नाम चाहिए किसी को काम चाहिए
मधुर स्वर प्रकृति के प्रकृति की समझ, प्यार चाहिए
वैसी ना अब इंसानों को कोई शाम चाहिए
पेड़- पौधों की छाँव को एसी से तोलने लगे हैं
सच्चे पर्यावरण प्रेमी भी झूठ बोलने लगे हैं
कोने- कोने ढूंढ लिए हैं प्रकृति तुम्हारे
अब तो हिमालय के साथ हर पर्वतमाला में ज़हर घोलने लगे हैं
दो कदम पैदल चलना हो गया है लज़्ज़ा का काम
घर के अंदर तक वाहन आए इसमें समझते हैं शान
पता है सबको प्रकृति और सभ्यताओं को सम्भालने में हम है नाकाम
कहीं कारखाने तो कहीं खोदी जा रही है खदान
मत करो जीवनदायनी प्रकृति का ज्यादा नुकसान
ना करो प्राकृतिक संसाधनों का अपमान
हालात और समस्या सुधर सकती है
आओ! करें कोई उपयोगी समाधान
मीठी वाणी कोयल की,
अम्बर शून्य में फैला रही।
सायं उषा के पहर में,
खग कलरव कर रही।
मन में उमंगें छा रही,
दिल में ढाढस हो रही।
लो कोयलिया आ गई,
सोये में कुछ सुना गई।
सुबह-सवेरे कार्यन हेतु,
झट सबको वो जगा गई।
वसंत आगमन की संदेशा सबको,
सहर्ष ही जहाँ को बता गई।
शहद सी मिठास सबके दिल में,
सहर्ष ही कोयलिया घोल गई।
मीठी वाणी कोयल ने,
अम्बर शून्य में फैला गई।
Written By Subhash Kumar Kushwaha, Posted on 14.06.2022बडे़ कष्ट का, बहोत गरीबी का बचपन।
देखें थे कभी पूरे हुए ना वो स्वप्न।।
निहारते रहे अब मौसम जाए बदल,
ताकतें रहे मिलें खुशियों के दो पल,
काम -काम बस काम किया
मां-बाप का नाम न बदनाम किया
नाकामयाब रहे फिर भी हुए ना सफल।।
अपना न सोचा बस बंधे रहे परिवार में
सच मानिए फ़र्क न देखा कभी व्यवहार में
हम मरे ऐतबार में वर्ना गए होते आगे निकल।
गैरों ने कहां अपनों ने सताया
दर्द क्या खून के आंसू रूलाया
बहुत कुछ सहा तभी देते नहीं कोई दखल।।
राधये तेरा क्या मेरा कसूर है
तभी आज इतना मजबूर हैं
आज सब दूर है बदल गया ख्याल।।
Written By Vijender Singh Satwal, Posted on 25.02.2023(1.) मिठाईवाला
मैं हूँ मिठाईवाला बच्चों
लो, खूब मिठाई खाओ तुम
हिलमिलकर सब नाचो-झूमो
यूँ जमकर मौज उड़ाओ तुम
(2.) लड्डू–मोदक
सुन बच्चे क्या, बोले ढोलक
जी भर खा ले, लड्डू–मोदक
है पूजा में भी मेरी शान
खाएँ मुझको गणपति हनुमान
(3.) बर्फ़ी
खोये से बनती हूँ मैं
लोग कहें मुझको बर्फ़ी
सब मुझको खाना चाहें
खर्चो तुम भी अशर्फ़ी
(3.) पेड़ा
बच्चों वो तो है येड़ा
जो ना खाता है पेड़ा
मुझसे ही सेहत निखरी
मीठा हूँ जैसे मिसरी
(4.) इमरती
दाल उड़द से मैं बनती
फिर चीनी में जा घुलती
बहन जलेबी सी दिखती
मैं हूँ दमदार इमरती
(5.) जलेबी
स्वाद बड़ा मीठा अनमोल
मैदे-ओ-चीनी का घोल
सबसे सस्ता मेरा दाम
गोल जलेबी मेरा नाम
(6.) पतीसा–सोहनपपड़ी
धागे-रुई सा मुझको सबने खींचा
‘सोहनपपड़ी’ कोई कहे ‘पतीसा’
मैदा, बेसन, घी, चीनी से बनता
खाने में मैं भी बर्फ़ी-सा लगता
(7.) रसगुल्ला
छेना, खोया, चाशनी में डूबा
खाके कोई भी, कभी ना ऊबा
पोप-ग्रन्थी खाये, पाण्डे-मुल्ला
जी मिठास भरा, मैं हूँ रसगुल्ला
(8.) गुलाब जामुन
न तनिक भी गुलाब जामुन का गुन
क्यों नाम धरा फिर गुलाब जामुन
मैं हूँ मटमैला काला–सा गोला
स्वादिष्ट हूँ, ये हर बच्चे ने बोला
(9.) मिल्क केक
खोया-चीनी से बना पदार्थ एक
मैं हूँ स्वादिष्ट बड़ा ही मिल्क केक
भूरा दानेदार दिखता हूँ मैं
बर्फ़ी के ही दाम मिलता हूँ मैं
(10.) घेवर
मैदा-दूध खूब घी मेँ तलकर
तैयार करे हलवाई घेवर
रक्षाबन्धन पर बिकता अक्सर
सब भाई-बहना ले जाते घर
(11.) पेठा
आयुर्वेदिक औषधि गुण मुझमें
सस्ता स्वादिष्ट हूँ मैं तो बेटा
ताजमहल यदि तुम घूमने जाओ
तो लाओ प्रसिद्ध आगरा पेठा
बड़ी उमंग से उतर रहा था
ध्यान लिए कैरम मैं नीचे
श्रीमति के मुखारविंद से
निकली ध्वनि थी पीछे-पीछे
कहाँ जाते हो, रूक भी जाओ
पहले एक रोटी तो खाओ
पैर ना जाने जड़ के जैसे
रुकने को तत्पर था वैसे
फिर भी कदम बढ़ा ही डाला
मानो सर मूसल में डाला
प्रेम की पींगे गायब हो गयीं
जान मेरी हलकान हो आयी
बोली इतनी गर्मी में मैं
तुम क्या जानो की मैं कैसे
चार रोटियां बड़े जतन से
मुश्किल से मैने हैं सेंके
बच्चा पड़ा उधर रो रहा
तुमको बस नीचे की सुध है
थकी-मांदी मैं पूरे दिन की
जीवन जैसे कोई युद्ध है
और भी ना जाने वो क्या-क्या
बोली जाती थी, बढ़-चढ़कर
हालत हुई जी मानो ऐसे
काटो फिर हो खून ना जैसे
फिर भी मैं था हिम्मतबाला
नीचे पैर बढ़ा ही डाला
ऐसी तकरारें तो नित दिन
होती हैं, होती रहतीं हैं
मित्रो संग पल दो पल ना हो
तो फिर वो कैसा ही दिन है।
तो फिर वो कैसा ही दिन है।।
यादों के बवंडर ने,
फिर से तूफान मचाया है।
फिर से कुछ उकेरू शब्दो के चित्र,
मन में ये ख्याल आया है।
जीवन की आपाधापी,
जीने का संघर्ष।
कभी तकलीफे ढेरों,
कभी थोड़ा सा हर्ष।
इन सब के बीच,
खुद का अस्तित्व कही शून्य में जा समाया है।
फिर से कुछ उकेरू शब्दो के चित्र,
मन में ये ख्याल आया है।।
बड़े दिनों से मिली नही,
अपनी इस सहेली से।
जो निकालती है ,जीवन के हर पहेली से।
इससे कर के बाते अभी चैन आया है।
फिर से कुछ उकेरू शब्दों के चित्र,
मन में ए ख्याल आया है।।
इस जैसा कोई साथी नही,
ना ही ऐसा कोई मीत।
कभी ना छोड़े हाथ ए,
हो चाहे जीवन की कोई रीत।
बड़े दिनों बाद इसका साथ पाया है,
फिर से उकेरु कुछ शब्दो के चित्र,
मन में ए ख्याल आया है।
मन में ए ख्याल आया है।।
जैसे मालिक उधार देता है!
ऐसे मुझको वो प्यार देता है!
उसकी आदत है कूफियों जैसी,
घर बुलाता है मार देता है!
हौसला चाहिए है मरने का,
इश्क़ मौक़ा हज़ार देता है!
कैसे कह दूँ नहीं मुनाफ़िक़ है,
गुल में रख कर जो ख़ार देता है!
ज़ख्म देती है ज़िन्दगी सच में,
मैं तो कहती हूँ यार देता है!
जब नफस इश्क़ में बदलता है,
तन से कपड़े उतार देता है!
खंजरों का तो नाम है वर्ना,
दर्द तो इंतिज़ार देता है!
उसको पाना है जाओ सज्दा करो,
'ज़ोया' परवरदिगार देता है!
इतने अभी तक नाराज क्यों हो पापा जी।
बचपन वाला प्यार क्या भूल गए पापा जी।।
ऐसी क्या भूल की हमने हमें छोड़कर चले गए पापा जी।
कैसे बिताए परेशानियों के दिन क्या बताऊं पापा जी।
इतना भी न सोचा कि बिन बाप के
कैसे रहेंगे पापा जी।
कोई पूछता कब आएंगे पापा
अब आप ही बताइए क्या बोलूं पापा जी।
इतने अभी तक नाराज क्यों हो पापा जी।
बचपन वाला प्यार क्या भूल गए पापा जी।।
गोदी में तुम्हारी खेलकर,
पीठ पर घुड़सवारी की बहुत याद आती पापा जी मुझे।
मम्मी के आंसू पोंछते पोंछते कैसे बड़े हो गए पापा जी।।
कसूर क्या था मम्मी का जो छोड़कर चले गए।
प्यार की जगह क्यों आंसूओं की धार दे गए।।
आज मेरी शादी है, कन्या दान के लिए नहीं आए पापा जी।
कैसे निमंत्रण कार्ड भेजूं, पता भी नहीं आपका पापा जी।।
इतने अभी तक नाराज क्यों हो पापा जी।
बचपन वाला प्यार क्या भूल गए पापा जी।।
फेसबुक में अपलोड कर दी हैं शादी की तस्वीरें।
पहचान जाओ तो दे दीजिए आशीर्वाद मुझे पापा जी।।
उम्मीद थी कि एक दिन जरूर याद आएगी मेरी।
खोजते खोजते आकर गले मुझको लगाओगे पापा जी ।।
सपना मेरा चूर चूर हो गया है पापा जी
ऐसा क्या कसूर बेटी का आपकी।
जो छोड़ने के लिए मजबूर हो गए
बताओ न पापा जी।।
सकुन से तो जी न सकी
मर तो सकूं सकुन से।
बेटी वैसे भी होती पराई
क्या जानकारी नहीं है पापा जी।।
इतने अभी तक नाराज क्यों हो पापा जी।
बचपन वाला प्यार क्या भूल गए पापा जी।।
ख़्वाब हमने सजाए असली पर
चान्द कितने नचाए उंगली पर
नक़्ल हमने कराई औरों को
आरज़ूएं नहीं थीं नकली पर
कितनी अज़मत कि शान को पहुंचे
मैं ज़मीं पर रही न फिसली पर
इश़्क के सब सुरुर कह डाले
ना धिन ना के राग ढपली पर
डगमगाई न हौसला छोड़ा
गिर गई तो ज़रा संभली पर
चान्द धुंधला गये कई लेकिन
मैं सदा ही रही उजली पर
थक गया वक़्त जुनूं रहा बाक़ी
काम की मैं रही कमली पर
नाम मेरा सरोज था लेकिन
अपनी क़िस्मत से ख़ूब जम ली पर
शाह के आगे किसकी चलती है
बस यही सोंच के थम ली पर
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