सुना है इश्क़ की तफसीर में नाज़ो अदाएँ हैं!
अमानत हैं मुहब्बत की सब उनकी ये जफाएँ हैं!
अमल से ज़िन्दगी बनती है शादाँ औ जहन्नम भी,
मुक़द्दर से गिला शिकवा नहीं अपनी खताएँ हैं!
कई नस्लें मिरी मर खप गई लड़ लड़ के ग़ैरों से,
बहुत दिन बाद जाकर दुश्मनों से पार पाएँ हैं!
नहीं हूँ मुत्तफिक़ मैं भी ज़माना झूठ कहता है,
बड़ी ज़ालिम तुम्हारी तो निगाहें और अदाएँ हैं!
कमी क्या हो गई ऐसी बहुत करती शिकायत हो,
तुम्हारे नाज़ हँस हँस के हमीं ने तो उठाएँ हैं!
तरक़्क़ी सारी उनके नाम से मंसूब है मेरी,
इलाही का करम है और कुछ माँ की दुआएँ हैं!
यक़ीनन ही दुआओं से बदलती है लकी क़िस्मत,
ख़ुदा के दरसे माँगा तुमको रोएँ गिड़गिड़ाएँ हैं!
लगे मजहबी लूटने, करके भाव विभोर।
आग लगी अलगाव की, अपने चारों ओर।
एक दूसरे से दुखी, ये सारा संसार।
आग लगी अलगाव की, बिखर रहे परिवार।।
आपस में हमको लड़ा, नेता चलते चाल।
आग लगी अलगाव की, नोंचें मिलकर खाल।।
शेर तेंदुआ को लड़ा, लूटें मजे सियार।
आग लगी अलगाव की, सब के सब लाचार।।
वो फैलाकर नफरतें, खींच रहे दीवार।
आग लगी अलगाव की, हर दिन हाहाकार।।
जात धर्म की देश पर, नित नित गिरती गाज।
आग लगी अलगाव की, जलता सर्व समाज।।
फैल रहे हैं नित नए, बड़े अनोखे रोग।
आग लगी अलगाव की, झेल रहे हैं लोग।।
लगें पराये जन भले, अपने लगते गैर।
आग लगी अलगाव की, पले दिलों में बैर।।
नेता सेंके रोटियाॅं, कर खराब परिवेश।
आग लगी अलगाव की, फैली देश विदेश।।
संबंधों को छोड़कर, पूज रहे औजार।
आग लगी अलगाव की, झुलस रहा संसार।।
वो दिन ज्यादा दूर नहीं
छोडो! इस पर बहस क्या करनी
पिने के लिए स्वच्छ पानी भरपूर नहीं
तुम तो बस पैसों से अपनी प्यास बुझा बैठे हो
इसमें किसी का कोई कसूर नहीं
कुछ बेचेंगे कुछ को बचाएंगे
बीते हुए लम्हें लौट कर नहीं आएंगे
चाहे बहा दो विकास की तुम गंगा
पर पर्यावरण से मत लो इतना पंगा
वो दिन ज्यादा दूर नहीं
छोड़! दो इंसान से इंसान को लड़ाने का धंधा
कारोबार सबका हो चला मंदा
समझो किसानों के दर्द को
सूखा बना है फसलों के लिए गले का फंदा
वो दिन ज्यादा दूर नहीं
योजनाओं की लाकर लाकर बहार
देखो! आ गए नयें- नयें औज़ार
दो कदम पैदल नहीं चल सकते आजकल हम
सिकुड़ने लगा है प्रकृति का आकार
वो दिन ज्यादा दूर नहीं
हिमालय भी कहराने लगा है
बार- बार हमें समझाने लगा है
देख! मानव कदम तू गलत उठाने लगा है
क्यूँ मेरे अस्तित्व को मिटाने लगा है ?
वो दिन ज्यादा दूर नहीं
साल-दर- साल ग्लेशियर घट रहे हैं
हम शोध में ही बंट रहे हैं
ढूंढो उपाय जिससे पर्यावरण हो हमारा निरोग
जरूरत के मुताबिक ही करना होगा जैव- सम्पदा का उपयोग
वो दिन ज्यादा दूर नहीं
बढ़ने लगा है वैश्विक स्तर पर तापमान
विपदाओं ने घेरे रक्खा है सारा आसमान
क्यूँ कर रहे हैं हम आने वाली पीढ़ी की विरासत का अपमान?
छोडो! लोभ कुरेदने का धरा को, रहने दो सभ्यता के कुछ निशान
वो दिन ज्यादा दूर नहीं
मिलकर बचाओ जल, जंगल और ज़मीन; रहने दो वादियों को यूँ ही हसीन
Written By Khem Chand, Posted on 28.05.2022चिड़िया चुनमुन करती आई,
दौड़-दौड़ कर नाँच दिखाई।
गया रवि अब आई इन्दु,
फैलाने वसुधा पर
धुली-मिली ये रश्मि।
सब- बच्चे हँसी खुशी से,
मस्ती में ही खेल रहे हैं।
कृषक मस्ती में जा रहे हैं,
अपने-अपने बैलों के संग
खेत की जुताई करने।
चिड़िया चुनमुन करती आई,
दौड़-दौड़ कर नाँच दिखाई।
गई इन्दु अब आया रवि,
गुम हो गई है वसुधा से,
घुली-मिली ये रश्मि।
बच्चे हँसी खुशी से,
जा रहे हैं पढ़ने-लिखने।
और कृषक मस्ती में ही लौट रहे हैं,
खाने और खिलाने।
चिड़िया चुनमुन करती आई,
दौड़-दौड़ कर नाच दिखाई।
Written By Subhash Kumar Kushwaha, Posted on 12.06.2022कदम-कदम पर मिल जाते आज इंसान तड़फते
देखा मैंने अक्सर अपनों से टूटे इंसान को भटकते।
आज रिश्तों में वो जान कहां,
आज रिश्तों की पहचान कहां,
स्वार्थी हुए सब किसी को मतलब कहां,
अब रिश्तों में चाह, तलब कहां।
पैसे की चकाचौंध में अंधा हुआ,
हर किसी का यही धंधा हुआ।
बदला सबका स्वभाव,
कोई न पूछता मन के भाव।
लुप्त हुआ भाईचारा, हर कोई बेसहारा
समय का बहाव रोके न रूकता,
इसके आगे हर कोई है झूकता।
राधये, तू क्या तेरी क्या औकात है,
आखिर सब को जाना वही मौकात है।
Written By Vijender Singh Satwal, Posted on 25.02.2023ज़िंदगी एक रंगीन सफ़र है,
हर क़दम पर नई कहानी है।
खुशियों के फूल खिलते रहें,
गमों की बादल धीरे-धीरे छाए।
चलते रहो अपने सपनों की ओर,
हर मुश्किल को आसानी से हराओ।
हर दिन नया उजाला दिखाए,
हर अंधकार को खुद से मिटाओ।
ज़िंदगी के मेले में रंग भरो,
बीते पलों को ख़ुद से संवारो।
खुले आसमान में ख्वाब सजाए,
उड़ते पंखों से सपनों को पाओ।
ज़िंदगी एक अनमोल तोहफा है,
सबको यह दिया है उपहार खुदा ने।
खुश रहो, मुस्कराते रहो बस,
इस नए दिन को आँखों में भरो।।
जरा देख मग में, पग बढ़ा रहा।
अराति को उसकी, कीर्ति सता रहा।
जरा देख अमन चैन, वैभव लिए बता रहा।
अराति उसके ख्वाब में, शयन उड़ा रहा।
जरा देख नैतिकता धूमिल कृत बता रहा
अराति अपना मूल्यवान समय गवा रहा।
जरा देख अमन चैन वैभव कि सुख बता रहा
अराति को उसका अमन चैन वैभव
सुख-दुख बनकर सता रहा।
हो गयी जड़ें जो क्षीण भला
क्या वृक्ष खड़ा रह पाएंगे
पायों का जो आधार न हो
क्या भवने गिर ना जाएंगे
मंदिर में देव की मूरत ना हो
क्या वो मंदिर कहलाएगा
और संस्कारों से रहित मनुष्य
क्यों ही मनुष्य कहलाए भला??
दिल मे करुणा का भाव ना हो
मन क्रोध, घृणा से भरा रहे
ह्रदय में हो ईर्ष्या की ज्वाला
वाणी में विष ही घुला रहे
सम्मान किसी का क्यों करना
मिथ्याभिमान में चूर रहे
नंगापन का दर्प दिखाता हुआ
क्यों ही मनुष्य कहलाए भला??
अपनी संस्कृति से कटा हुआ
धर्म का कोई ज्ञान नहीं
आधुनिकता के आडम्बर में
फूहड़ता ही पहचान बनी
क्षय होते तन के कपड़ों से
वेशर्मी में अभिमान जगे
और भूल भारतीय दर्शन को
पाश्चात्य का विगुल बजे
अपनी पहचान मिटाता हुआ
क्यों ही मनुष्य कहलाए भला??
मनु की संताने गर हैं तो
मन मे विचार करना होगा
संस्कृतियों को, संस्कारो को
फिर से ही अपनाना होगा
अपने मन कोई हीन भाव
ना आने पाए ध्यान रहे
हमे गर्व हो अपनी संस्कृति पर
हम सब मिलकर यह प्रयास करें
है दर्शन भारत का बहुत महान
ये विश्व को दिखलाना होगा।
ये विश्व को दिखलाना होगा।।
जो कल नाज़ों में पाली जा रही थी!
वही घर से निकाली जा रही थी!
कहानी में नया किरदार लाकर,
मेरी अस्मत उछाली जा रही थी!
मेरी साँसें अटकने लग गईं थीं,
हँसी में बात टाली जा रही थी!
यहाँ पर ख़ून बेजा बह रहा था,
वहाँ गद्दी सँभाली जा रही थी!
मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे,
बहन डोली में डाली जा रही थी!
वो 'ज़ोया' जो अदब की शाइरा थी,
लहद में हाथ ख़ाली जा रही थी!
सच
बंदर की पूँछ है
जबतक उसमें आग नहीं लगेगी
लंका दहन कहाँ से होगा?
मणिपुर की स्त्रियाँ आज भी सीता हैं
बस रावण की तलाश जारी है!
स्त्रियाँ इस बार अपनी लड़ाई खुद लड़ेंगी
राम को वहाँ अब आने की जरूरत नहीं है
झूठ
शासक है
जो मौन है सीताहरण पर
द्रौपदी के चीरहरण पर
वह अंधा भी है धृष्टराष्ट्र की तरह
और उससे उम्मीद करना
कि वह बोलेगा
मूर्खता है
और देवालय का देवता
लाख प्रसाद चढ़ाइए
अपना मौन-व्रत तोड़ ही नहीं सकता!
कलमकारों ने रचना को स्वरचित एवं मौलिक बताते हुए इसे स्वयं पोस्ट किया है। इस पोस्ट में रचनाकार ने अपने व्यक्तिगत विचार प्रकट किए हैं। पोस्ट में पाई गई चूक या त्रुटियों के लिए 'हिन्दी बोल इंडिया' किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं है। इस रचना को कॉपी कर अन्य जगह पर उपयोग करने से पहले कलमकार की अनुमति अवश्य लें।