वो नफरत की खेती करते हैं।
जहरीले फल उगाते हैं।
अलग-अलग रंग का
चौला ओढ़कर,
अपना हो घर जलाते हैं।
कोढ़ी सरीखे
अपने ही घावों को
खुजलाते हैं।
कभी मजहब,
कभी जाति,
कभी बेरोजगारी,
कभी शोषण
की चक्की में
पीसे जाते हैं।
समर्थ हैं जो वो
अपनी खीर पकाते हैं।
हर तरह के
हथकंडे अपनाते हैं।
सच तो यही है कि,
कमजोर को तो
खिचड़ी के भी
लाले पड़ जाते हैं।
कभी ज़िंदा ना मिलूँ तो खुद को रुलाना मत
वो आना चाहेगी मुझे देखने, उसे तुम बुलाना मत?
मरुँ किसी रोज़ तो मेरे अपनों के कान्धों का सहारा मिले
मेरे कुटुंब को शख्स कोई मुझसे भी प्यारा मिले
थोड़ा सा ज़िद्दी हूँ अपनों के लिए, भाई- बहनों के लिए बुजुर्गों के लिए
फ़िर कोई इस रूह को किनारा मिले
मालूम नहीं है पिता की डांट कैसी होती है, पर छोटे पापा का साया हो
बहनों की आँखों में ख़ुशी और भाइयों की आँखों में प्यार झलके
कोई अपना ना सही तो कोई पराया ना हो
कैसे ना कहूँ वो चाहते नहीं मुझे
मुझे किसी ने समझाया- बुझाया ना हो
हँसता रहता हूँ पीकर अक्सर नादान कलम
ऐसा कभी हुआ नहीं मैंने अकेले में खुद को रुलाया ना हो
देख लो एक झलक इस तस्वीर को
फिर देखने से गुज़ारा ना होगा
याद रखना घर की दीवारों हमें ज़िंदा रखना अपना समझकर
हम जैसे बच्चों का जन्म दोबारा ना होगा
कई हुए हैं हमसे पहले भी कुटुंब में सम्भालने वाले
पर अब उस जमाने जैसा नज़ारा ना होगा
बताने नहीं आते हैं मुझे दर्द, दर्द की तरह
लिखूँ कोई शायरी उसके नाम पर, वोही मेरा इशारा होगा
किसी शाम को किसी शाम की नज़र ना लगे
हम- तुम मिले ताउम्र भर के लिए और जमाने को हमारे एक होने की खबर ना लगे
एक रोज़ हो ऐसा उम्रभर के लिए
हो ऐसा ज़िंदगी में हमारी कि?
उपहार तुम्हें पायल दूँ
तुम पहनें पाँव में और कोई खनक ना हो
हम तुम्हें और तुम हमें मिले आखिरी सांस तक के लिए
क्या ये मुमकिन है मन?
और हमारे घर वालों को इसकी भनक ना हो
फ़िर मिले तो क्यूँ मिले
कुछ पल
तेरे संग
मन में लिए
उमंग
जीना चाहता हूं
नन्ही आशाएं
यही भावना लिए
कुछ पल मैं
तुम्हारे संग
गुजारना चाहता हूं
शायद मिल जाए
मुझे अनमोल खुशियां
ऐसी ही आशा लिए
कुछ पल मैं
बिताना चाहता हूं।।
Written By Manoj Bathre , Posted on 12.05.2021
उसे तब से देख रहा हूं,
जब वह उम्र के
उस दहलीज पर था
जहां आदमी
सब वारे न्यारे
कर देता था.
आज सब कुछ बदला.
पर उसके परिस्थैतिक स्वास्थ्य की
अपरिवर्तनीय स्थिति
काल को चुनौती देता है.
सुखद अनुभूति का मिसाल
बन बैठा है.
चाँदी जैसी हँसती खिलती,
व्योम से आई बहु किरण।
पुष्प-पुष्प को मधुर-मधुर,
खुशियाँ लाई बहु किरण।
पड़ी फूस की कुछ झोपड़ियां,
रहती अंधकार से भरी।
उनमें जाकर-
चाँदी जैसी दीप जलाकर,
ज्यों मुस्काई बहु किरण।
चाँदी जैसी थाली सा,
आया है पूर्णमास में।
फिर चाँदी के तारों जैसी,
नभ से आई बहु किरण।
बहु किरण से बदल गया जग,
पंछी गाती गीत चली।
नया-नया मन ताजा जीवन,
ज्यों मुस्काई बहु किरण।
Written By Subhash Kumar Kushwaha, Posted on 12.06.2022मुझ को गाँव के उसूलों का भरम रखना था!
यअ्नी हँसते हुए ख़ारों पे क़दम रखना था!
परवरिश मेरी उदासी में हुई थी सो मुझे,
हर घड़ी ऊँचा उदासी का अलम रखना था!
क्या कहूँ कैसी अज़ीयत थी कि वक़्ते फ़ुरक़त,
होंठ को हँसता हुआ, आँख को नम रखना था!
गर उसे रोकती, रुक जाता मगर यार मुझे,
अपनी ख़ुद्दार तबीयत का भरम रखना था!
उसको दामन में मेरे रखना था कुछ पल सुख के,
और बदले में मुझे अपना क़लम रखना था!
आप जब जानते थे पहले से फ़ितरत अपनी,
आप को उस से ज़रा राब्ता कम रखना था!
एक दिन ग़ुस्से में माई से ये मैं चीख़ पड़ी,
नाम 'ज़ोया' की जगह आप को ग़म रखना था!
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