वाह रे इंसान अब तो हद ही हो गई।
अपनी औरत के आगे माँ रद्द हो गई।।
सीचा था जिसने छाती का दूध पिलाकर।
आज पानी के लिए भी मोहताज हो गई।।
बड़े कष्ट उठाकर उसने तुझको पाला।
अपने मुॅंह का निवाला तुझे खिलाया।।
आज भूल गया तू सभी बचपन के दिन।
माँ पचपन से ऊपर बैठी है रोटी के बिन।।
पत्नी को तू आज हम दर्द समझता।
और अपनी माँ को सिरदर्द समझता।।
पत्नी को बना रखा है घर का सरताज।
और माँ हो रही दो रोटी को मोहताज।।
वाह रे इंसान... वाह रे इंसान...
Written By Ganpat Lal, Posted on 08.05.2022एक कोरोना का लहर,
दूसरे ठंढ का कहर,
असीमित संकटों का पहर,
जीजन शैली हुआ जर्जर.
ठिठके गांव,शहर,नगर,
सुने पड़े हैं चालू डगर,
व्यस्त जीवन हुआ सहर,
जीवन जैसे गई ठहर.
आम या खास सब चिंतित,
मृतप्राय प्राण हो जीवित,
लोगों की चाह हुए किंचित्,
जेहन में आया फिर अतीत.
होअस्तित्व फिर से नियमित,
प्राण हो सबका फिर पुलकित,
फिर न हो जीवन भावित,
मानव मन होता है शंकित.
देख चिंतित मानवता को,
प्रकृति उन्मुख हुई आने को,
सूरज उगा अपने फलक पर,
जीवन लौटी फिर पटरी पर.
जब कपड़े साफ करने बैठता,
तेरा ही अहसास हो आता।
जब कभी मैं सुबह-सवेरे,
लेट पढ़ने को जगता।
बस! तेरा ही अहसास हो आता।।
काश, अगर तुम होती,
समय से पढ़ने मुझे जगाती।
और तो और-
अच्छे नम्बरों से उर्तीण होने का,
आशीष सहर्ष ही देती।
जब कभी पड़ोसी के आँगन को जाता,
बहू का ताना सास को देते देखता।
मूकदर्शक बने पुत्र को देखकर,
मेरा दिल रूग्न हो आता।
और तेरा ही अहसास हो आता।।
ऐसी घटना हर-घर की देखकर,
अपना भी दिल-
सोचने को मजबूर हो आता।
क्या?.....
मेरी माँ के साथ ऐसा ही होता,
क्या?......
राज नित लगाती ताना तुमपर।
ना माँ ना !
ऐसा कभी ना होता,
तेरे संग कोई अत्याचार।
ना ही कोई खोटी व्यवहार।।
जब कभी मैं अकेला पड़ जाता,
बस! तेरा ही अहसास हो आता।
काश! विधाता तुझे इम्तिहान लेने,
मेरे घर ही भेजता-
तेरा ना होने का अहसास,
स्वतः में भूल जाता।
स्वतः मैं भूल जाता।।
स्वतः मैं भूल जाता।।।
Written By Subhash Kumar Kushwaha, Posted on 09.06.2022आओ संकल्प करें कुछ करने का
बिगडा़ जो उसे सुधरने का
मन के भाव विचार परखने का
उठ लो तुम समय है विचरने का।।
खुशी है मनाने का तरीका बदल गया
जीने का वो सलीखा बदल गया
भाव वहीं मौका है ठीक संभलने का।।
आज में जी आज का जो दौर है
हर शाम के बाद होनी भिर भोर है
घटा घनघोर है समय चांद निकलने का।।
कितना स्वार्थी मतलबी तू हो गया
जागने से पहले भिर सो गया
उठ सुबह हो गई समय सूरज निकलने का।।
राधये, कहना इतना अब तो संभल
दुनिया बदल तू भी खुद बदल
हौसला रख बुलंद मंजिल को पाने का।।
चाहत ए साजिशें हुई,
कमबख्त रिश्ते निभाना न आया,
लब्ज़ ख़ामोशी से सरक लिए,
आंखे टक टकी लगा निहार रही,
हवाएं पास से बहकाने लगी,
शिद्दत से आईने ए गवाही मुकर गए,
वर्ष गुजरे दिसंबर से साहेब मेरे,
वो ममता की मूर्त हो गई,
मैं सखी ललिता कान्हा की हो गई,
आबदार करें मुकम्मल सरहद,
रूह से रूहानियत इन्तजार हो गई,
सिजदे होने लगे राही के,
खुदगर्ज जहां मुस्कराने लगा,
इश्क से महरूम हो गया बंदा,
कलम में स्याही इश्क की भरी,
बेइंतहा इश्क ए दासंता अधूरी सुनी।।
कलमकारों ने रचना को स्वरचित एवं मौलिक बताते हुए इसे स्वयं पोस्ट किया है। इस पोस्ट में रचनाकार ने अपने व्यक्तिगत विचार प्रकट किए हैं। पोस्ट में पाई गई चूक या त्रुटियों के लिए 'हिन्दी बोल इंडिया' किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं है। इस रचना को कॉपी कर अन्य जगह पर उपयोग करने से पहले कलमकार की अनुमति अवश्य लें।