बहुत दिनों से इसलिए, रुकी पड़ी थी राह।
दिल मिलते ही हो गई, चट मॅंगनी पट ब्याह।।
वेतन हो छ: अंक में, बस इतनी सी चाह।
मिलते ही संजोग ये, चट मॅंगनी पट ब्याह।।
होती है माॅं बाप को, बेटी की परवाह।
जमते ही संबंध फिर, चट मॅंगनी पट ब्याह।।
बड़े बुजुर्गो से सदा, मिलती यही सलाह।
लड़के लड़की की करो, चट मॅंगनी पट ब्याह।।
लड़का-लड़की जाॅब में, फिर किसकी परवाह।
कर ली बिन माॅं बाप के, चट मॅंगनी पट ब्याह।।
कभी लड़को पर ना करना गुरुर,
ख़्याल रखें यही एक बात जरुर।
लालन-पालन करके किया बड़ा,
धूम-धाम से उसकी शादी किया।।
बिटियाॅं पे कोई दिया नही ध्यान,
कहतें रहें घर पर है बहुत काम।
मांँ के संग तुम करना सब काम,
पढ़ना नहीं ये लड़की का काम।।
लड़को को दिया बहुत ही प्यार,
रोज दिलातें है उसे ढ़ेर सामान।
लड़की घर में काम सभी करती,
भाई की किताबें छुपकर पढ़ती।।
मांँ सभी की आखिर में मांँ होती,
घर में पढ़ लो यही कहती रहती।
प्राईवेट दिलाया मांँ ने ये एग्जाम,
अव्वल करके किया उसने नाम।।
आज पिताजी के मिट गये भरम,
पढ़नें को भेजा खुल गया करम।
स्कूल कॉलेज किया उसने फस्ट,
आज कलेक्टर वह बनी है बेस्ट।।
नाम किया उसने गाँव और स्टेंट,
भूलना नहीं समझना दोनों बेस्ट।
कल्पना से लिखकर किऍं पोस्ट,
ख़्याल रखें पढ़ना है ऐसी पोस्ट।।
हे सर्दी! तेरे भी जलवे, रोज-रोज मरवाते,
धनवानों को भी,तूं खूब तलवे चटवाते.
गर्मियों में तो सैर करके,खूब हैं इतराते,
बाकी दिन माथा पिट कर,रोग-बला बढ़ाते.
सुबह को धूप आने का,
दोपहर को सांझ ढाने का,
सांझ को ठंड होने का,
ठंड को भय ठिठुरती रात का,
ठिठुरती रात को सुखद सुबह का,
सुबह को इंतजार गर्म धूप का,
ठिठुरती रात और उसके सुबह,
इन्हीं दोनों का काल है सुखद.
इन्हीं के चेहरे पर ही दिखता मुस्कान,
बाकी सारे समय तो हैं ही परेशान।
जैसे चक्र पूरे दिन का,
वैसा ही चक्र ऋतुओं का,
ग्रीष्म को वसंत और वर्षा का,
उतनी ही व्यग्रता वर्षा को शरद का,
शरद को भी बेचैनी रहती ग्रीष्म का
प्रकृति भी ख्याल रखता नियमों का
प्राकृतिक चक्रों की है संतुलित खुबसूरती,
पूरी मानवता है इन्हें पालन कर जीती।
गर्मियों में तो बेफिक्र खूब सैर कराते,
हे प्रकृति! तेरे भी जलवे रोज-रोज मरवाते.
ममता की गोदी में जो सीखे भाषा,
वही है हमारी मातृभाषा।
इसलिए तो-
अंगिका हमारी मातृभाषा,
अंग देश की संतान हम।
जहाँ के राजा हुए थे कर्ण,
मित्रता पे कुर्बान भी।
नहीं झुका स्वाभिमान उसका,
माँ कुन्ती के लाख प्रलाप पर।
उसी धरा के रहने वाले,
बुद्ध की संतान हम।
सत्य के पुजारी और,
अहिंसा के अनुयायी हैं।
जो हम पर नजर उठाये,
उसके लिए-
चन्द्रगुप्त सा अवतारी हैं।
अंगिका हमारी मातृभाषा,
अंग देश की संतान हम।
हरियाणा हमारा कर्म क्षेत्र हैं,
करते हरयाणवी का सम्मान भी।
यही हमारा संरक्षक बन,
प्यार लुटाती हर क्षण -हर पल।
अंगिका हमारी मातृभाषा,
अंग देश की संतान हम।
इसी तरह सब करते रहना,
इक-दूजे का सम्मान सब।
Written By Subhash Kumar Kushwaha, Posted on 08.06.2022आज न किसी की चिंता न फिक्र
चाहता हर जुंबा पर अपना ही जिक्र
कितना स्वार्थी मतलबी हो गया इंसान
सच में कितना बदल गया इंसान।।
मां-बाप की ना कद्र रही ना बड़ों की शर्म
पाप पकड़ गया है अपनी चरम
दो अक्षर पढ़ बन गया गुणवान।।
रिश्तों को छोड़ अकेला खुश हैं
नीम की दातुन छोड़ करता ब्रुश है
भूला देशी नुस्खे बना ज्ञानवान।।
भूला अपनी सभ्यता संस्कृति को
अपना पश्चिम वेश-भूषा मौज-मस्ती को
अपने घमण्ड में चूर बन गया धनवान।।
राधये इस मिट्टी इस धरा को नमन कर ले
बहोत है मेरे देश में पहले भ्रमण तो कर ले
डुबकी लगा गंगा में सब टुटे तेरा अभिमान।।
विजेन्द्र सतवाल राधये रोहतक हरियाणा
Written By Vijender Singh Satwal, Posted on 06.09.2022कलमकारों ने रचना को स्वरचित एवं मौलिक बताते हुए इसे स्वयं पोस्ट किया है। इस पोस्ट में रचनाकार ने अपने व्यक्तिगत विचार प्रकट किए हैं। पोस्ट में पाई गई चूक या त्रुटियों के लिए 'हिन्दी बोल इंडिया' किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं है। इस रचना को कॉपी कर अन्य जगह पर उपयोग करने से पहले कलमकार की अनुमति अवश्य लें।