चहका करता था
जिनकी किलकारियों से गुलशन
अब वे चिड़िया उड़ परदेस चली
दब गया है उनका बचपन
बच्चों के बोझ तले
सिसकती हैं उनकी तमन्नाएँ
बिस्तर पर औंधा मुँह किए
सिमट कर रह जाती हैं
वे अक्सर किन्हीं कौनों में
जिन्हें बुलाता है
आसमान चौड़ी बाँहें किये
जब चाहा, इनकार किया,
अब रोने से भी क्या होगा.
मैं चला, सिकंदर मेरे पीछे,
मुकद्दरी बादशाह वो निकला.
फितरत नहीं मेरे लहू में,
अब सिर धुनने से क्या होगा.
ज़माने से मैं नहीं,जमाना मेरे पीछे,
जिसने काबिलियत जानने की,
रुह से गूढ़ता और हिमाकत की
ज़ाहिर है जमाना उसी का होगा.
मलाल तो मुझे भी खूब रहेगी,
वक़्त अपने हिसाब से ही चलता है.
सामयिक परिस्थितियों के प्रतिकूल,
अब रोने से भी क्या होगा.
जिससे इंसान की इंसानियत है,
उसी से ज़माने की जमानत भी है.
आज़ से संभल,जो किया सो भोगा,
अब रोने से भी क्या होगा.
मनचाहा मिलता नहीं, सबको सच्चा मित्र।
दुख सुख में जो साथ दे, मन भी रखें पवित्र।।
मनचाहा मिलता नहीं, सबको निज ससुराल।
कहीं खबर नित पूछते, कहीं बजाते गाल।।
मनचाहा मिलता नहीं, श्रोताओं का प्यार।
कवि सम्मेलन इसलिए, सफल नहीं हैं यार।।
मनचाहा मिलता नहीं, सबको निज मनमीत।
कहीं न पटती एक पल, कहीं मधुर संगीत।।
मनचाहा मिलता नहीं, सबको वंश कुलीन।
कहीं जन्म से दीनता, कहीं जात से हीन।।
मनचाहा मिलता नहीं, सबको उचित समाज।
जीना मुश्किल है कहीं, कहीं गिरे नित गाज।।
मनचाहा मिलता नहीं, सबको उम्दा भाग्य।
कहीं असीमित सिसकियाॅं, कहीं घोर वैराग्य।।
मनचाहा मिलता नहीं, बहुओं से अनुराग।
सास ससुर पर जो कभी, कहीं न उगले आग।।
मनचाहा मिलता नहीं, अपनों से अब प्यार।
जरा जरा सी बात में, लड़ने को तैयार।।
मनचाहा मिलती नहीं, कहीं नौकरी आज।
जहाॅं कहीं भी देखिए, ठेकेदारी राज।।
मनचाहा मिलता नहीं, सदा किरायेदार।
कहीं मान घर का रखे, कहीं करे बेकार।।
मनचाहा मिलता नहीं, सबको जग में काम।
कहीं चैन पल भर नहीं, कहीं बहुत आराम।।
मनचाहा मिलता नहीं, सबको आस पड़ौस।
कोई देता साथ है, कोई झाड़े धौंस।।
दो दिन का मेला फिर चले जाना है
जीते-जी के रिश्ते नाते साथ क्या ले जाना है।
झूठ छल-कपट बैर-द्वेष में चूर है
काहे का घमण्ड पगले काहे में मगरूर है
जोड़-जोड़ माया धरी संग ना कुछ ले जाना है।।
भाई-बहन मां-बाप सब सब लगे तूझे बैरी
जल्दी में बहोत लगाता न तू देरी
किसी न सुनता व्यर्थ समझाना है।।
बच्चे बीवी किसी न तूझे प्यार
क्लेश रखता हरदम करता तकरार
पड़ी रिश्तों में दरार एक दिन ऐसे ही गिर जाना है।।।
राधये,वक्त आखिरी अब तो संभल जा
छोड़ हेराफेरी अब तो बदल जा
सांस धड़ से निकल जा पंछी उड़ जाना है।।
Written By Vijender Singh Satwal, Posted on 06.09.2022तिजारतों का नया दायरा ज़ियादा है!
मुनाफा कम तो कहीं फायदा जि़यादा है!
इसीलिये तो तुम्हें दिल के पास रखता हूँ,
मिरा यकीन तुम्हीं ने किया ज़ियादा है!
तुम्हारा कहना है मंज़िल नहीं मिलेगी कभी,
मिरे ख़्याल से यह फलसफा ज़ियादा है!
तुम्हारे दिन तो हैं गुज़रे हसीन राहों में,
मुहब्बतों का तुम्हे तजरुबा ज़ियादा है!
हज़ारों लोग शिक़ायत उसी की करते हैं,
वो सिर्फ दिखता है की पारसा ज़ियादा है!
हाँ बेटे लग गए जब सारे काम धन्धे से,
सुकून क़ल्ब को हासिल हुआ ज़ियादा है!
हैं झूठ कहते कि जलते हैं दीप आँधी में,
चिराग़ कैसे जलेंगे हवा ज़्यादा है!
वो ग़ैर देस की तहज़ीब सीख आया लकी,
वो अपने मुल्क से बाहर रहा ज़ियादा है!
नहीं रहना मुझे अब कुएं का मेंढक बनकर,
घूमना है नदी तालाब व समुन्द्रो में जमकर।
अब बनना है मुझको तैराकी में महानायक,
चलना है अब बहते पानी की गति देखकर।।
नहीं रहना मुझे इस घर चौबारे में दुबककर,
बनना है सैनिक भारत की सेना से जुड़कर।
मिटाना है नक्सल आतंकवाद हिंदुस्तान से,
लड़ना इन उग्रवादियों से मुझे अब जमकर।।
सिर पर मैनें अब ऐसा कफ़न बांध लिया है,
कलम से लेख व बंदूक से गोली चलाना है।
पहचान मेरी ख़ास नही फिर भी मैं ख़ास हूं,
कुएं का मेंढक ना रहकर विश्व में घूमना है।।
ये परिश्रम हमें थकान व तड़प अवश्य देता,
पर अंदर से मज़बूत बाहर से सुंदर बनाता।
वर्षों से हमें हमारी भूल व गलतियों ने मारा,
अपनेपन का अहसास मुझे प्रतिदिन होता।।
अब नही रहना हमें इस तरह पिंजरे में केद,
उड़ना है गगन आकाश में पिंजरा तोड़कर।
कुछ तभी बनेंगे जब जाऐंगे ये घर छोड़कर,
दिखाना है पूरे जहान को आसमान छूकर।।
जिस पंथ से आया था मैं थक कर
खुशियों की तलाश में,
फिर से उन बेचैन गलियों में
भटकने को मजबूर हूँ।
शून्य से ही चलकर पहुंचा शून्य तक मैं,
फिर भी खुद में ही मगरूर हूँ।
तनावों के रत्नाकर में डुबकियाँ लगाकर भी,
मैं खुशियों के लिए मशहूर हूँ।
यह जीवन है कि काली रात है
मैं इस काली रात का मजदूर हूँ।
क्यों दहेज का बोझ इस दुनिया में,
मां बाप को बहुत रुलाता है ।
जो लेता है क्यों नहीं सोचता,
वो भी तो एक बेटी का बाप है ।।
सोचे पहले बेटी को ब्याऊंगा,
बेटे के ब्याह में दहेज लाऊंगा।
लालच दोनों के मन में है बड़ा,
तभी दहेज का दानव सर है चढा़।।
छोड़ो इस बुराई, अभिशाप को,
क्यों इस मांग को बेटियां जलाते हैं।
क्यों नहीं सोचते दोनों ही यहां,
बेटियां भी बेटो से कहां कम है।।
आओ अब मिलकर संकल्प करें,
इस दानव को जहां से मिटाना है ।
खुशीयों से करे स्यादी बच्चों की,
दहेज नहीं देना और नहीं लेना हैं ।।
पढ़ी लिखी संस्कारी यदि हो बेटी,
दहेज के लिए नहीं बोझ समझना है।
हर मानव के मन में बस यही लगे,
दहेज लेना व देना कानूनन अभिशाप है।।
यह है ,सरकारी विद्यालय
शिक्षक आते-जाते हैं,
इसका ही तनख्वाह पाते हैं,
बच्चों का नाम है ,यहां
पर वह हैं, जहाँ-तहाँ,
किस्से रोज नये रचते,
पदाधिकारियों से भी खूब हैं, इनके पटते,
वे आते ,मध्याह्न भोजन चबाते,
कुछ इधर-उधर की बातें करते ,
फिर समेकित अनुदान की ,हिसाब करते
यह है ,सरकारी विद्यालय
भी एस एस का नाम यहाँ,
पर न होता कोई बैठक ,
उनको मिलता है प्रशिक्षण, कागजों पर
यह है,सरकारी विद्यालय
किसिम,किसिम के शिक्षक हैं
किशमिश और बादाम चबाते,
पुस्तक इनको नही है भाता ,
यह सरकारी विद्यालय।
अभी तक मेरी जिंदगी का अर्धभाग बीत चुका
लोगों को सफाई देते देते
मैं जो बात बोली नही लोग सुन लेते
जो कार्य की नही वो देख लेते
न जाने इतनी गुणवतायुक्त लोग कहा से आते?
थोड़ी हया भी नही करते, मुझपर तोहमत लगाते
न जाने और कितनी सफ़ाई देनी होगी मुझे जिंदगी में
मैं नही जीना चाहती घुट घुट कर बंदगी में
लेकिन कुछ मजबूरीयो के कारण मैं सबकुछ सहती
हर गम को स्वयं तक रखकर किसी से कुछ नही कहती
फिर भी मैं दोषी और आरोपी बन जाती हूँ
क्योकि मैं अपने ऊपर उठती उँगली के
विरोध में आवाज को उठती हूँ
लेकिन वो विरोध कुछ देर में सिमट जाता
हार जाती मैं सबके आगे
जब मेरा विरोध विवशता में लिपट जाता
एक औरत को बहुत कुछ सोचकर
कदम को उठाने पड़ते
हार जाती हैं अकेले वो जमाने से लड़ते लड़ते
अंत में वो भाग्य को दोषी मानकर झुक जाती
जो उसके अंदर की उमंग होती वो रुक जाती
परिस्थितियाँ चाहे जो भी किंतु अब नही मैं रूकूँगी
अब सफाई नही दूंगी किसी को और ना ही झुकूँगी
क्योकि मेरे अंदर आत्मबल और प्रेरणा का साथ हैं
कोई मेरा कुछ नही बिगाड़ सकता
क्योकि सत्य मेरे साथ हैं
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