फुदक-फुदककर मन,
हर्षित करती चिरैया।
जाने क्यों? आंगन से,
फुर्र हो रही प्यारी गौरैया।
दुनियाभर में पाईं जाती,
भाँति-भाँति की प्रजाति।
चावल दाल शौक से खाती,
पंख फैला मिट्टी में नहाती।
बालमन को भाती चिरैया,
फुदक फुदककर........।
है घटती तादाद की वजह,
खेतों में कीटनाशकों का छिड़काव।
आदम रिहाइशी गृहों में बदलाव,
गाँवों में भी शहरों सा बिखराव।
होगा आँगन सूना बिन गौरैया,
फुदक फुदककर मन......।
रखे दानापानी आंगन मुंडेर,
आश्रय देने में करें न परहेज़।
मिल हेल्प हाउस स्पैरो बनाएं,
जीवदया आस्थावान कहाएं।
बनें जीवन संवर्धक प्रिय गौरैया,
फुदक फुदककर मन....।
जिंदगी जब तक रहेगी,
कुछ ना कुछ कमी रहेगी,
तुम्हारी ही नहीं हमारी भी,
कुछ ना कुछ इच्छा अधूरी रहेगी.... जिंदगी
कोई कर ले चाहे लाख जतन,
कोई जूटा ले चाहे लाख धन,
हमेशा लगता है कम ही कम,
ये कमी आखिर कब पूरी होगी.... जिंदगी
अमीर लोगों को भी सुख नहीं है,
फकीर लोगों को भी सुख नहीं है,
अपने सुख से कोई खुश नहीं है,
न जाने कब ये भूख मिटेगी.... जिंदगी
Written By Bharatlal Gautam, Posted on 19.04.2023टेम्स नदी के तट पर बैठे गोरे आदमी ने काले व्यक्ति से अति गंभीर स्वर में कहा, ``काला, ग़ुलामी और शोषित होने का प्रतीक है। जबकि गोरा, आज़ादी और शासकवर्ग का पर्याय! इस पर तुम्हारी क्या प्रतिक्रिया है?``
काले ने गोरे को ध्यान से देखा। उसकी संकीर्ण मनोदशा को भाँपते हुए शांत स्वर में काले ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की, ``जिस दिन काला बग़ावत कर देगा, उस दिन गोरे की आज़ादी ख़तरे में पड़ जाएगी और काला खुद शासन करना सीख जाएगा।``
``कैसे?`` उत्तर से असंतुष्ट गोरे ने पूछा। उसकी हँसी में छिछोरापन साफ़ झलक रहा था।
``देखो,`` अपनी उंगली से काले ने एक और इशारा किया, ``वो सामने सफ़ेद रंग का कुत्ता देख रहे हो!``
``हाँ, देख रहा हूँ।`` गोरे व्यक्ति ने उत्सुक होकर कहा।
``उसे गोरा मान लो,`` काले ने बिंदास हँसी हँसते हुए कहा।
``ठीक है,`` अब गोरा असमंजस में था।
``जब तक वह शांत बैठा है, हम उसे बर्दाश्त कर रहे हैं। ज्यों ही वह हम पर भौंकना शुरू करेगा या हमें काटना चाहेगा, हम उसका सर फोड़ देंगे,`` इतना कहकर काले ने खा जाने वाली दृष्टि से गोरे की तरफ़ देखा। इस बीच कुछ देर की ख़ामोशी के बाद काला पुनः बोला, ``फिर दो बातें होंगी?``
``क्या?`` कुछ भयभीत स्वर में गोरा बोला।
``या तो वह मर जायेगा! या फिर भाग जायेगा!`` इतना कहकर काले ने गोरे को घूरा, ``तुम्हें और भी कुछ पूछना है?``
``नहीं,`` गोरे ने डरते हुए कहा और वहाँ से उठकर चल देने में अपनी भलाई समझी।
Written By Mahavir Uttaranchali, Posted on 20.02.2023आज क्यो उदास हो
आज दिन खास है।
आज लम्हा है ये
उसको जी लो तुम
कुछ खुशियां तो है
जो तेरे पास है
वक्त बदलेगा जरुर
ऐसा विश्वास है।
ये जन्मदिन है तेरा
और तू उदास है।
केक बनाया है
तो खा लो तुम
जन्मदिन का उत्सव
मना लो तुम
Written By Abhishek Jain, Posted on 25.04.2023कल कलुआ पर लिखी कविता
आज छपी थी जिस अखबार में
दिनभर की थकान मिटाने के लिए
दो पैक पीने के बाद
खाने वाले चने बंधे थे
कलुआ के हाथ में उसी अखबार में
क्षितिज के पार तक
कोई संबंध नहीं था कलुआ का
उस कविता से
कल कलुआ पर नहीं लिखूंगा
फिर कोई कविता
उसके लिए संघर्ष करूंगा.
हां!
अब अकेला नहीं है,
जब था,तब था !
एक बड़ा जन समूह है उसके साथ।
सकारात्मक विचारधारा का पोषक है वो,
अत: बड़ी संभावना है,
पतझड़ के बाद।।
वह!
जीवन की मुश्किलों,
झंझावातों को झेलते
थका नहीं था,
मात्र ठगा सा महसूस
कर रहा था।
उसे विश्वास था,
तभी वह
प्रतीक्षारत्त था।
आज भी अपने संकल्पों
पर अडिग है,
अनेको अन्याय के बाद।।
यही जन समूह एक दिन,
क्रांति को मूर्त रुप देगी।
भारत को अन्याय मुक्त कर,
न्याय से श्रृंगारित करेगी,
तय काल के बाद।।
और
वह !
एक मानित-सम्मानित
जीवन जी सकेगा......!
मां भारती का भाल उॅ॑चा
कर सकेगा !!
निराशा और अविश्वास
के काले बादल
छंटने के बाद।।
आदमी जब खाता है खट्टा मीठा कड़वा या नमकीन
तो जिव्हा से ही पता चलता है उसका स्वाद
लेकिन कड़वा बोल अगर निकल जाए जिव्हा से
तो हो जाता है बना बनाया खेल बर्बाद
जिव्हा से निकले अगर मीठे बोल
तो दुश्मन भी अपने दोस्त बन जाते हैं
कड़वे बोलों से आग लग जाती है तन बदन में
अपने भी दूर चले जाते हैं
अगर जिव्हा पर नियंत्रण है
तो कई बीमारियों से भी रहते हैं दूर
स्वाद के चक्कर में खाना उल्टा सीधा
दवाई खाने को कर देता हैं मजबूर
जिव्हा में अगर हो शहद सी मिठास
तो होती है हर जगह बड़ाई
जिव्हा अगर कम बोले बड़ों की हो इज़्ज़त
तो नहीं होती भाईयों में लड़ाई
दुख में यदि सबके साथ रहे
दूसरों का दुख कम कर देती है
सांत्वना के दो बोल जो निकल जाएँ
तो दूसरों में एक नया जोश भर देती है
आंखें तलाश रही है
सुनहरे स्वप्न
जो दे सकें हमें
और
सबको
कोमल पंखुड़ियों का
एहसास
और
बना रहे
हम सब में
हर दम
हर क्षण
एक अटूट विश्वास
ऐसी आशाएं लिए
ये आंखें
रखती है विश्वास पर।।
Written By Manoj Bathre , Posted on 11.05.2021
कभी अक्लमंद लोग समझाया करते थे
मुझ नादान को
फिर एक नया दौर आया
उस पुराने दौर के जाने के बाद
कि
वो ही होशियार लोग मुझे समझने की
या मुझसे समझने की
करने लगे एक असफल कोशिश
क्योंकि
तब मुझमें समावेश हो चुका था
कुछ आड़ी-तिरछी कुछ उल्टी-सीधी दुर्घटनाओं का
एक रहस्य बन चुका था मेरा अस्तित्व
समा चुका था
मुझमें न जाने
कितने मीठे और कडुवे ज़हरों का तीखापन
अब एक बार फिर दौर बदला है
किस्मत मज़ाक कर रही है मेरे साथ
मेरी आत्मा अचल है
केन्द्र बन चुका हूँ मैं अब दूसरों के लिए
लोग खेल समझकर हंस रहे हैं
अब समझा रहा हूँ मैं उनको
आयाम अब वो नहीं रहे
परिवेश बदल रहे हैं
कब तक ये दौर
और यूँ ही बदलते रहेंगे
साथ मेरे वक़्त के ये खेले
और कब तक चलते रहेंगे
पी रहा हूँ निरंतर गरल
सह रहा हूँ लोगों की वज़्नी आवाज़
लिए दिल में विश्वास और प्यार
जिए जा रहा हूँ
बस
अब यहीं अपने होंठों को
सीकर विराम ले रहा हूँ।
Written By Anand Kishore, Posted on 15.05.2021
बिन पंखों के सुबह सवेरे मैं उड़ने लग जाऊं
मन करता है बच्चा बनकर मैं पढ़ने लग जाऊं
छुप जाऊं मां के आंचल में अपनी आंखें मींचे
मां पुचकारे मुझे दुलारे मैं डरने लग जाऊं
मन के आंसू माथे की ड्योरी और पलकें कुछ भारी
मां बाबू के दुखड़े सारे मैं हरने लग जाऊं
दुआ मिली है अन गिन तोहफ़े और तक़दीर सलामत
कोई ग़ैबी शय थामे जब मैं गिरने लग जाऊं
उछलूं कूदूं शोर मचाऊं बिन बात हंसू मैं गाऊं
मन करता है बच्चा बनकर मैं उड़ने लग जाऊं
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