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Friday, 12 May 2023

  1. हम भी हैं वही परब्रह्म परमात्मा
  2. मां जैसा करता कोई प्रीत नहीं
  3. अनोखी किताब
  4. करवा चौथ
  5. ले विराम कर , विश्राम
  6. माँ के हाथ का खाना
  7. मैं इंतजार में था
  8.  शख़्स वो भी अब नाराज़ रहता है 
  9. अधिक समय चलता नहीं
  10. लम्हों में जिंदगी बंट रही है

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यह शरीर है किराए का मकान,
फिर क्यों करना इस पर अभिमान|
इस शरीर को छोड़कर जाना है,
फिर क्या खोना और पाना है|
इस शरीर से ही है सब रिश्ते नाते,
शरीर के छूटते ही सब भूल जाते|
जब तक बची है इस शरीर में जान,
तभी तक है इस शरीर की भी पहचान|
हम शरीर नहीं उसके अंदर की है आत्मा,
सत्य मानो तो हम भी हैं वही परब्रह्म परमात्मा|

Written By Avinash Rai, Posted on 08.05.2023

मां जैसा करता कोई प्रीत नहीं 
मां के लोरी से बढ़िया कोई संगीत नहीं
धरा ठिठुरी सर्दी से हो 
चाहे आकाश में कोहरा गहरा हो
या बाग बाजारों की सरहद पर
सर्द हवा का पहरा हो
मां करती कभी आराम नहीं 
इस जग में कोई मां समान नहीं
निज मन में तनिक विचार करो
रामकली खातिर मां का ना त्याग करो।
मां तो स्नेह-सुधा बरसाती है
इस धरती पर स्नेह का फूल खिलाती है।
हमें मनभोग खिलाकर 
खुद भूखे पेट हो जाती है।
मां की कीर्ति सदा-सदा 
मां का प्रेम है प्रतिपदा
जिसके सर पर हो मां का हाथ
वह कहां किसी से डरते हैं।
हर मां हो स्वस्थ, मस्त 
ऐसा ईश वंदना करते हैं।
मां के डांट से बढ़िया कोई संगीत नहीं
मां जैसा करता कोई प्रीत नहीं।

Written By Tulsi Soni, Posted on 10.05.2023

अनोखी किताब

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Shiwani Das
~ शिवानी दास

आज की पोस्ट: 12 May 2023

ज़िंदगी के सवालों में उलझी 
एक खुली किताब हूँ मैं...
लेकिन मुझे पढ़ना इतना आसान नहीं हैं।

कुछ अनकहे एहसास हैं अंदर
जिसे कोई समझ नहीं पाता..
अजनबी लोगों के बीच उलझी
किसीसे नाराज़ नहीं हूँ मैं
बस अपने मासूमियत से परेशान हूँ मैं...

ज़ख्मों से भरी हुई
कुछ बातों से डरी हुई
कुछ बिखरते पन्नों को सुलझाने में लगी हूँ मैं
किसी से कोई शिकायत भी नहीं हैं..
हर मुसीबत से आप लड़ी हूँ मैं
भले ही दुनियाँ की इस भीड़ में
आज अकेले खड़ी हूँ मैं
मग़र ज़रा नज़रे उठाकर देखो तो सही
सबकी ख़ास हूँ मैं...
ज़िंदगी के सवालों में उलझी
एक `अनोखी किताब` हूँ मैं,
एक `अनोखी किताब` हूँ मैं... 

Written By Shiwani Das, Posted on 11.05.2023

हे नारी नारायणी जग में 
तुझसा नहीं कोई महान है
तेरे प्यार बलिदान और समर्पण 
की भावना को प्रणाम है


जिन्हें रात रात भर जाग कर लोरियां सुनाती है
उन्हीं बच्चों द्वारा भी कभी ठुकराई जाती है
जिनको बचपन में सूखे में सुलाती है
और खुद गीले में सो जाती है


कभी बच्चों के लिए होई का व्रत रखती है
परिवार के लिए मेहनत की भट्टी में तपती है
पूरा जन्म दूसरों की सेवा में लगी रहती है
कभी पति के हाथों तिरस्कार भी सहती है


दूसरों की खुशी में खुशी ढूंढती है
पूरी उम्र जिसकी दूसरों के लिए कटती है
पुरुष प्रधान समाज में कईयाँ को खटकती है
निर्भय न्याय पाने के लिए दर दर भटकती है


दहेज के लिए जलाई जाती है
पूरी उम्र इतने कष्ट सहती है
दिल से दुआएं देती है सबको
मन में हमेशा प्यार की धारा बहती है

 

दूसरों के लिए लगा दी अपनी उम्र सारी
अपने लिए कुछ नहीं कहती है
पति मारे पीटे चाहे बाल पकड़ कर घसीटे
फिर भी चुपचाप घुट घुट कर सहती है


धन्य हो भारत की संस्कारी नारी
इतना कुछ होने पर भी
न पानी पीती है न कुछ खाती है 
सम्पूर्ण दिन भूखा बिताती है


अटल रहे मेरा सुहाग
यही कामना करती है
अपने पति की लंबी आयु के लिए 
फिर भी करवा चौथ का व्रत करती है

Written By Ravinder Kumar Sharma, Posted on 17.12.2021

ले विराम, कर विश्राम
 फिर वक्त से ताल मिला तू
 पटरियों सी सपाट कहां जिंदगी
पहाड़ो के पिननुमा रास्ते अपना तू।

कभी दायें, कभी बायें
प्रकृति को  जीवन में उतार तू।
तू चलता जा, बस चलता जा
मंजिल का आईना तोड़ तू।

लहरो की मोजो को देखता जा
समंदर की लहरों से टकरा तू
सुख दुख है सिक्के के दो पहलू
 एक बार तबियत से सिक्का उछाल तू

वक़्त मिले खुद को विराम दे
अल्पविराम के बाद,  
अपना परचम फहरा तू
अनंत ब्रह्मांड सा तेरा मन
जग में चांद तारों सा जगमगा  तू।

Written By Kamal Rathore, Posted on 21.11.2021

घूम लो जग सारा,
हर तरफ भटक आना,
नहीं मिलेगा वो जायका कहीं
न मिलेगा माँ के हाथ का खाना....।

बड़े रसोइयों से पंसदीदा बनवाना,
मुहँ में पानी के फिर बहाव आना,
पेट का वो तह तक भर जाना,
खोज न पाओगे वो स्वाद का खजाना
नहीं मिलेगा वो जायका कहीं
न मिलेगा माँ के हाथ का खाना....।

अलग नगरों के वो प्रसिद्ध व्यंजन,
ऊँची दुकानों का वो लजीज भोजन,
मंहगे भोजनालय का भावहीन अन्न,
हृदय को सन्तोष बेशक कर लेना
नहीं मिलेगा वो जायका कहीं
न मिलेगा माँ के हाथ का खाना....।

महक वो ममता की कहाँ पाओगे,
गर्म रोटियों में अपनत्व कहाँ पाओगे,
रायता लगाव का खोजे न पाओगे,
तृप्ति की भाषा को बेशक बदल लेगा
नहीं मिलेगा वो जायका कहीं
न मिलेगा माँ के हाथ का खाना....।

अचारों की विविधता घर पर ही मिलेगी,
दही की सार्थकता माँ ही समझेगी,
पसन्द तुम्हारी माँ ही पूरी करेगी,
बाहर तो बस भूख ही मिटाना
नहीं मिलेगा वो जायका कहीं
न मिलेगा माँ के हाथ का खाना....।

Written By Sumit Singh Pawar, Posted on 14.06.2021

देर रात वह व्हाट्सएप पर 
कुछ लिख रही थी वो 
और मैं इंतजार में था 
कि क्या संदेश आएगा
लेकिन वो लिखते-लिखते 
रूक गई थी शायद
काफी देर तक भी
उसका कोई मैसेज नहीं आया
उसके धड़कते एहसासों की 
धड़कन को महसूस ना कर सकूँ
इतना भी नादान नहीं हूँ मैं
उसके सीने की धड़कनों से 
कुछ तो वाकिफ़ रहा ही मैं
खुशबू, हवा और पानी का
साथ-साथ सेवन किए है हमने
ज्यादातर एक ही प्याले में
माना कि मैं अव्यवस्थित हूँ
पर कभी नहीं अटकता हूँ
बेतुकी और बेकार बातों में
अक्सर सुन लेता हूँ
तेरे जहन में उठती लहरों को
याद रखना तुम इसे सदा
बहुत कुछ समझ लेता हूँ
लेकिन कुछ मजबूरियां हैं
जो खामोश रखती हैं मुझको
जो दूर भी रख रही हैं हमको

Written By Manoj Kumar, Posted on 05.02.2022


 शख़्स वो भी अब नाराज़ रहता है 
अब बदला- बदला सा उसका अंदाज़ रहता है 
अपने पीछे बहुत सारी मोहब्बत छोड़ जायेंगे ``खेम``
बहुत हसरत है तुम्हें उनसे मिलने की 
क्या पता ?
जैसा वो पहले हुआ करता था, वैसा ही आज रहता है 

फिर ज़ख्म पुराने उभर आये हैं  
आज फिर किसी पत्थर पे सर फोड़ आये हैं
मरने- मारने वालों से हाथ अपना तोड़ आये हैं 
किस किश्ती बैठना था, कि किसी किनारे लग जाऊँ
आज फिर रास्ता घर का कहीं छोड़ आये हैं 

उस गली में भी जाने का कोई बहाना ना रहा 
जैसा  सुना था, वैसा अब ये जमाना ना रहा 
कैसे लौटते उनकी राहों में वापिस हम जैसे 
जब जाने वालों का किसी दिल में ठिकाना ना रहा 

एक शाम फिर आ जाए, सुहानी सी 
जैसे रहती नहीं है ज्यादा बरस, जवानी भी 
भूल जाते ज़ख्म देने वालों को, और याद आते मरहम लगाने  वाले 
काश! सुना जाता हमें वो इश्क़ की कहानी भी 

गाँवों में अब गाँव कहाँ बसते हैं 
टेढ़े- मेढ़े कहाँ अब रिश्तों के रस्ते हैं 
मिलने- मिलाने वालों का दौर चला गया गाँव से  
अब चार- दीवारी के  अंदर भी परिवार वाले 
मोबाइल देखकर अकेले- अकेले हँसते हैं 

सुनाओ तो कोई  उनके शहर की खबर हमें 
सुना है आने वाले हैं वो, ग्राम के मेले इसबार 
देखने तो दो  ज़ालिमों उसे एक नज़र हमें 
बीहड़ सहरा में भटक गए ख़्वाब हमारे 
ना ढंग से  नींद आती रातों को हमें 
समंदर तक जाना है, समंदर से मिलने हमें 
पहले उस रास्ते पर दिखाओ नहर हमें 



Written By Khem Chand, Posted on 05.04.2022

अधिक समय चलता नहीं, हिंसा अत्याचार।
धर्म जाति के नाम पर, नफरत का व्यापार।।

अधिक समय चलता नहीं, चोरी का सामान।
छीना झपटी कुटिलता, धन दौलत अभिमान।।

अधिक समय चलता नहीं, ऐंसा कारोबार।
वापिस की मंशा बिना, सबसे लिया उधार।।

अधिक समय चलता नहीं, दो नम्बर का माल।
मिट जाता है एक दिन, सारा मायाजाल।।

अधिक समय चलता नहीं, झूठ कुटिल व्यवहार।
ले जाता है एक दिन, आकर भेड़ सियार।।

Written By Rupendra Gour, Posted on 02.05.2022

कहते जीते नहीं बस कट रही है
कभी ग़म कभी खुशी के लम्हों में जिंदगी बंट रही है

न कोई सपना न ख्बाव जी रहे ऐसे ही
कल जैसे थे आज भी है वैसे ही 
लम्बी जिंदगी धीरे-धीरे घट रही है।।

गम में भी कभी- कभी ली है हंसी
निकलने की कोशिश की गाड़ी रही धंसी की धंसी
कश्ती फंसी भंवर में भटक रही है।।
नज़रिया बदला लोग शब्दों के वार करते
बदले सब हम लोगों की खुदगर्जी से डरते
आंहे भरते हैं सांसें अटक रही है।।

राधये, इंतजार में ऐतबार ज़रूरी है
हम न समझे उनकी नफ़रत है या मजबूरी है
पर चाहत अधूरी है सब को खटक रही है।।

Written By Vijender Singh Satwal, Posted on 06.09.2022

Disclaimer

कलमकारों ने रचना को स्वरचित एवं मौलिक बताते हुए इसे स्वयं पोस्ट किया है। इस पोस्ट में रचनाकार ने अपने व्यक्तिगत विचार प्रकट किए हैं। पोस्ट में पाई गई चूक या त्रुटियों के लिए 'हिन्दी बोल इंडिया' किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं है। इस रचना को कॉपी कर अन्य जगह पर उपयोग करने से पहले कलमकार की अनुमति अवश्य लें।

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