यह शरीर है किराए का मकान,
फिर क्यों करना इस पर अभिमान|
इस शरीर को छोड़कर जाना है,
फिर क्या खोना और पाना है|
इस शरीर से ही है सब रिश्ते नाते,
शरीर के छूटते ही सब भूल जाते|
जब तक बची है इस शरीर में जान,
तभी तक है इस शरीर की भी पहचान|
हम शरीर नहीं उसके अंदर की है आत्मा,
सत्य मानो तो हम भी हैं वही परब्रह्म परमात्मा|
मां जैसा करता कोई प्रीत नहीं
मां के लोरी से बढ़िया कोई संगीत नहीं
धरा ठिठुरी सर्दी से हो
चाहे आकाश में कोहरा गहरा हो
या बाग बाजारों की सरहद पर
सर्द हवा का पहरा हो
मां करती कभी आराम नहीं
इस जग में कोई मां समान नहीं
निज मन में तनिक विचार करो
रामकली खातिर मां का ना त्याग करो।
मां तो स्नेह-सुधा बरसाती है
इस धरती पर स्नेह का फूल खिलाती है।
हमें मनभोग खिलाकर
खुद भूखे पेट हो जाती है।
मां की कीर्ति सदा-सदा
मां का प्रेम है प्रतिपदा
जिसके सर पर हो मां का हाथ
वह कहां किसी से डरते हैं।
हर मां हो स्वस्थ, मस्त
ऐसा ईश वंदना करते हैं।
मां के डांट से बढ़िया कोई संगीत नहीं
मां जैसा करता कोई प्रीत नहीं।
ज़िंदगी के सवालों में उलझी
एक खुली किताब हूँ मैं...
लेकिन मुझे पढ़ना इतना आसान नहीं हैं।
कुछ अनकहे एहसास हैं अंदर
जिसे कोई समझ नहीं पाता..
अजनबी लोगों के बीच उलझी
किसीसे नाराज़ नहीं हूँ मैं
बस अपने मासूमियत से परेशान हूँ मैं...
ज़ख्मों से भरी हुई
कुछ बातों से डरी हुई
कुछ बिखरते पन्नों को सुलझाने में लगी हूँ मैं
किसी से कोई शिकायत भी नहीं हैं..
हर मुसीबत से आप लड़ी हूँ मैं
भले ही दुनियाँ की इस भीड़ में
आज अकेले खड़ी हूँ मैं
मग़र ज़रा नज़रे उठाकर देखो तो सही
सबकी ख़ास हूँ मैं...
ज़िंदगी के सवालों में उलझी
एक `अनोखी किताब` हूँ मैं,
एक `अनोखी किताब` हूँ मैं...
हे नारी नारायणी जग में
तुझसा नहीं कोई महान है
तेरे प्यार बलिदान और समर्पण
की भावना को प्रणाम है
जिन्हें रात रात भर जाग कर लोरियां सुनाती है
उन्हीं बच्चों द्वारा भी कभी ठुकराई जाती है
जिनको बचपन में सूखे में सुलाती है
और खुद गीले में सो जाती है
कभी बच्चों के लिए होई का व्रत रखती है
परिवार के लिए मेहनत की भट्टी में तपती है
पूरा जन्म दूसरों की सेवा में लगी रहती है
कभी पति के हाथों तिरस्कार भी सहती है
दूसरों की खुशी में खुशी ढूंढती है
पूरी उम्र जिसकी दूसरों के लिए कटती है
पुरुष प्रधान समाज में कईयाँ को खटकती है
निर्भय न्याय पाने के लिए दर दर भटकती है
दहेज के लिए जलाई जाती है
पूरी उम्र इतने कष्ट सहती है
दिल से दुआएं देती है सबको
मन में हमेशा प्यार की धारा बहती है
दूसरों के लिए लगा दी अपनी उम्र सारी
अपने लिए कुछ नहीं कहती है
पति मारे पीटे चाहे बाल पकड़ कर घसीटे
फिर भी चुपचाप घुट घुट कर सहती है
धन्य हो भारत की संस्कारी नारी
इतना कुछ होने पर भी
न पानी पीती है न कुछ खाती है
सम्पूर्ण दिन भूखा बिताती है
अटल रहे मेरा सुहाग
यही कामना करती है
अपने पति की लंबी आयु के लिए
फिर भी करवा चौथ का व्रत करती है
ले विराम, कर विश्राम
फिर वक्त से ताल मिला तू
पटरियों सी सपाट कहां जिंदगी
पहाड़ो के पिननुमा रास्ते अपना तू।
कभी दायें, कभी बायें
प्रकृति को जीवन में उतार तू।
तू चलता जा, बस चलता जा
मंजिल का आईना तोड़ तू।
लहरो की मोजो को देखता जा
समंदर की लहरों से टकरा तू
सुख दुख है सिक्के के दो पहलू
एक बार तबियत से सिक्का उछाल तू
वक़्त मिले खुद को विराम दे
अल्पविराम के बाद,
अपना परचम फहरा तू
अनंत ब्रह्मांड सा तेरा मन
जग में चांद तारों सा जगमगा तू।
घूम लो जग सारा,
हर तरफ भटक आना,
नहीं मिलेगा वो जायका कहीं
न मिलेगा माँ के हाथ का खाना....।
बड़े रसोइयों से पंसदीदा बनवाना,
मुहँ में पानी के फिर बहाव आना,
पेट का वो तह तक भर जाना,
खोज न पाओगे वो स्वाद का खजाना
नहीं मिलेगा वो जायका कहीं
न मिलेगा माँ के हाथ का खाना....।
अलग नगरों के वो प्रसिद्ध व्यंजन,
ऊँची दुकानों का वो लजीज भोजन,
मंहगे भोजनालय का भावहीन अन्न,
हृदय को सन्तोष बेशक कर लेना
नहीं मिलेगा वो जायका कहीं
न मिलेगा माँ के हाथ का खाना....।
महक वो ममता की कहाँ पाओगे,
गर्म रोटियों में अपनत्व कहाँ पाओगे,
रायता लगाव का खोजे न पाओगे,
तृप्ति की भाषा को बेशक बदल लेगा
नहीं मिलेगा वो जायका कहीं
न मिलेगा माँ के हाथ का खाना....।
अचारों की विविधता घर पर ही मिलेगी,
दही की सार्थकता माँ ही समझेगी,
पसन्द तुम्हारी माँ ही पूरी करेगी,
बाहर तो बस भूख ही मिटाना
नहीं मिलेगा वो जायका कहीं
न मिलेगा माँ के हाथ का खाना....।
देर रात वह व्हाट्सएप पर
कुछ लिख रही थी वो
और मैं इंतजार में था
कि क्या संदेश आएगा
लेकिन वो लिखते-लिखते
रूक गई थी शायद
काफी देर तक भी
उसका कोई मैसेज नहीं आया
उसके धड़कते एहसासों की
धड़कन को महसूस ना कर सकूँ
इतना भी नादान नहीं हूँ मैं
उसके सीने की धड़कनों से
कुछ तो वाकिफ़ रहा ही मैं
खुशबू, हवा और पानी का
साथ-साथ सेवन किए है हमने
ज्यादातर एक ही प्याले में
माना कि मैं अव्यवस्थित हूँ
पर कभी नहीं अटकता हूँ
बेतुकी और बेकार बातों में
अक्सर सुन लेता हूँ
तेरे जहन में उठती लहरों को
याद रखना तुम इसे सदा
बहुत कुछ समझ लेता हूँ
लेकिन कुछ मजबूरियां हैं
जो खामोश रखती हैं मुझको
जो दूर भी रख रही हैं हमको
शख़्स वो भी अब नाराज़ रहता है
अब बदला- बदला सा उसका अंदाज़ रहता है
अपने पीछे बहुत सारी मोहब्बत छोड़ जायेंगे ``खेम``
बहुत हसरत है तुम्हें उनसे मिलने की
क्या पता ?
जैसा वो पहले हुआ करता था, वैसा ही आज रहता है
फिर ज़ख्म पुराने उभर आये हैं
आज फिर किसी पत्थर पे सर फोड़ आये हैं
मरने- मारने वालों से हाथ अपना तोड़ आये हैं
किस किश्ती बैठना था, कि किसी किनारे लग जाऊँ
आज फिर रास्ता घर का कहीं छोड़ आये हैं
उस गली में भी जाने का कोई बहाना ना रहा
जैसा सुना था, वैसा अब ये जमाना ना रहा
कैसे लौटते उनकी राहों में वापिस हम जैसे
जब जाने वालों का किसी दिल में ठिकाना ना रहा
एक शाम फिर आ जाए, सुहानी सी
जैसे रहती नहीं है ज्यादा बरस, जवानी भी
भूल जाते ज़ख्म देने वालों को, और याद आते मरहम लगाने वाले
काश! सुना जाता हमें वो इश्क़ की कहानी भी
गाँवों में अब गाँव कहाँ बसते हैं
टेढ़े- मेढ़े कहाँ अब रिश्तों के रस्ते हैं
मिलने- मिलाने वालों का दौर चला गया गाँव से
अब चार- दीवारी के अंदर भी परिवार वाले
मोबाइल देखकर अकेले- अकेले हँसते हैं
सुनाओ तो कोई उनके शहर की खबर हमें
सुना है आने वाले हैं वो, ग्राम के मेले इसबार
देखने तो दो ज़ालिमों उसे एक नज़र हमें
बीहड़ सहरा में भटक गए ख़्वाब हमारे
ना ढंग से नींद आती रातों को हमें
समंदर तक जाना है, समंदर से मिलने हमें
पहले उस रास्ते पर दिखाओ नहर हमें
अधिक समय चलता नहीं, हिंसा अत्याचार।
धर्म जाति के नाम पर, नफरत का व्यापार।।
अधिक समय चलता नहीं, चोरी का सामान।
छीना झपटी कुटिलता, धन दौलत अभिमान।।
अधिक समय चलता नहीं, ऐंसा कारोबार।
वापिस की मंशा बिना, सबसे लिया उधार।।
अधिक समय चलता नहीं, दो नम्बर का माल।
मिट जाता है एक दिन, सारा मायाजाल।।
अधिक समय चलता नहीं, झूठ कुटिल व्यवहार।
ले जाता है एक दिन, आकर भेड़ सियार।।
कहते जीते नहीं बस कट रही है
कभी ग़म कभी खुशी के लम्हों में जिंदगी बंट रही है
न कोई सपना न ख्बाव जी रहे ऐसे ही
कल जैसे थे आज भी है वैसे ही
लम्बी जिंदगी धीरे-धीरे घट रही है।।
गम में भी कभी- कभी ली है हंसी
निकलने की कोशिश की गाड़ी रही धंसी की धंसी
कश्ती फंसी भंवर में भटक रही है।।
नज़रिया बदला लोग शब्दों के वार करते
बदले सब हम लोगों की खुदगर्जी से डरते
आंहे भरते हैं सांसें अटक रही है।।
राधये, इंतजार में ऐतबार ज़रूरी है
हम न समझे उनकी नफ़रत है या मजबूरी है
पर चाहत अधूरी है सब को खटक रही है।।
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