ईद की नमाज़ पढ़तें है सभी देश के मुसलमान,
करतें है रोज़े-उपवास और मस्जिदों में अज़ान।
इसमें अहम-भूमिका वालीं यें जुम्में की नमाज़,
पढें भाई-भाभी चाची-चाची अब्बू-अम्मी जान।।
होली अथवा हो दिवाली क्रिस्मस चाहें यह ईद,
करतें हैं सभी सूरज का कभी चन्द्रमा का दीद।
एकता और मोहब्बत के यह पर्व है सब प्रतीक,
तमन्नाऍं सब पूरी कर सामान की करतें खरीद।।
आओं यारों मिलकर सभी ऐसा कुछ कर जाऍं,
गिलें शिकवें जो कोई है मन में उन्हें भूल जाऍं।
इस ईद के उपलक्ष्य में हम सब खुशियाॅं मनाऍं,
अपना मज़हब-धर्म भूलकर स्नेंह दीप जलाऍं।।
होती है क़व्वालियां तो कहीं मुशायरें और गीत,
है स्वयं से छोटों को ईदी गिफ्ट देने की ये रीत।
एक-दूजें से गलें मिलें एवं ख़ुशी अ़ता फरमाऍं,
खायें खिलाऍं खीर पूरी बनाके अपने मनमीत।।
नफ़रतों को भूलकर हम स्नेंह रुपी वृक्ष लगाऍं,
घर-ऑंगन और बग़ीचा ऐसे आज हम सजाऍं।
सम्पूर्ण विश्व में मनाया जाता इस ईद का जश्न,
अल्लाह के ९९ नाम ज़ुबान पर सभी के आऍं।।
दो दिन का मेला फिर चले जाना है
जीते-जी के रिश्ते नाते साथ क्या ले जाना है।
झूठ छल-कपट बैर-द्वेष में चूर है
काहे का घमण्ड पगले काहे में मगरूर है
जोड़-जोड़ माया धरी संग ना कुछ ले जाना है।।
भाई-बहन मां-बाप सब सब लगे तूझे बैरी
जल्दी में बहोत लगाता न तू देरी
किसी न सुनता व्यर्थ समझाना है।।
बच्चे बीवी किसी न तूझे प्यार
क्लेश रखता हरदम करता तकरार
पड़ी रिश्तों में दरार एक दिन ऐसे ही गिर जाना है।।।
राधये,वक्त आखिरी अब तो संभल जा
छोड़ हेराफेरी अब तो बदल जा
सांस धड़ से निकल जा पंछी उड़ जाना है।।
जमाने बाद किसने ये दिल ए हालात लिखा
बयां न हो जुबां से ऐसे अल्फाज लिखा
इश्क में जिसने घाट बनारस देखा
मुलाकात पहली में चांद साथ देखा
मसला है उलझा यूं इश्क का जैसे
कैसे किसने ये कलाम ए हयात लिखा
कहां कोई कहानी ना किस्सा ए खास कोई
इश्क में हमदम एक जिसने ख्वाब सींचा
क्या कहा तुमने वाह बहुत खूब
छोड़ो भी उसने तो बस दिल ए हालात लिखा।
Written By Suhani Rai, Posted on 06.02.2023समय तो समय होता है,
इसकी सकारात्मकता
जीवन धारा बदल देती हैं,
आत्मबल प्रबल करती हैं,
चार-चांद तो तब लग जाती
जब खाली समय का प्रयोग
और तन्मयता से करते हैं.
खाली समय काल का
अहम अवयव है,
अति प्रभावी ऊंचाइयां
यही बुलंद कराती हैं.
पराक्रम में पंख तब लग जाते
जब खाली समय का योजन,
तहे दिल से करते हैं.
काल का यह महात्वाकांक्षी
और अनूठा खंड है,
सकारात्मकता और चमत्कारी
संस्कृति ही मुख्य धारा है,
व्यक्तित्व और जीवन रौशन हो जाते
जब खाली समय का सही प्रबंधन
पूरी मनोयोग से करते हैं.
जी चाहता है कि तेरी यादों से,
मैं भी आज,लिपट कर रो लु,
दामन तेरा मुक़्क़दर में नहीं,
मुक़्क़दर से लिपट कर रो लु,
जाम पीना हां मेरी फ़ितरत में,
बता कहाँ था शामिल,
दिल मे आता है कि आज,
साक़ी से लिपट कर रो लुं,
तेरी जुल्फ़ों की घटाओं में,
मैं भी कभी ठहरा था,
आज बारिश, की इन बूंदों को,
मैं भी पकड़ कर, रो लुं,
आ भी जा के दो पल के लिए,
ही मेरी आँखों मे समा जा,
सुरमई शाम है मगर, तन्हा,
तन्हाइयों से लिपट कर रो लुं,
जाने वाले मेरी आहों की तपिश,
तुझको हाँ, जला ही देगी,
मैं भी पागल हुँ तेरी गर्द व,
गुबार से, ही लिपट कर रो लूं,
तू आता तो मैं अपने दिल को,
तेरी राहों में बिछा ही देता,
जुदाई और तन्हाई है मेरी,
खुद ही ख़ुद में सिमट कर रो लु,
मजबूर हूँ नाखुदाओं का सहारा,
मगर दरकार नहीं मुझे `` मुश्ताक़ ``
नादान मैं भी नहीं हूँ कि,
राह के मुसाफ़िर से ही लिपट कर तो लूँ,
मान ले बात मात-पिता की
आज बारी तेरी आई।
पढ़ ले,निखार ले खुद को
वक्त को जानने की बारी आई।
उठ प्रातः कर मेहनत पूरा दिन
समय का सदुपयोग की बारी आई।
भूल जा मस्ती, शरारतें, त्याग निंद्रा
उज्जवल भविष्य करने की बारी आई।
कम वक्त है पास तुम्हारे
नसीहतें मानने की बारी आई।
नहीं रहेंगे तुझे कहने वाले एक दिन
तड़पाएगा वक्त,समझने की बारी आई।
अकेला रह जाएगा इस दुनिया में
आज संभलने की बारी आई।
कहीं पछताता ना रह जाए सीमा
आज वक्त को जानने की बारी आई।
Written By Seema Ranga, Posted on 14.02.2023मेरे अन्दर की गुणवत्ता से,
जिसने है रू ब रू करवाई।
मेरे अन्दर नेक गुण भर,
सपने है साकार करवाई।
हर छात्र को अपना समझकर,
पुत्र-दोस्त सा प्यार दिया।
मेरे अन्दर छुपे सपने को,
सहर्ष ही साकार किया।
ज्ञान आश्रम की तपोभूमि में,
साहित्य का पाठ पढ़ाकर जिसने,
संस्कार से सबको विभूषित किया।
सही राह दिखाकर सबको,
सदाचारी का वरदान दिया।
हम तो अंग की गोद में जन्मा,
और अंगराज सा संदेश दिया।
विनम्र भाव सरल स्वभाव लिए,
अनजाने को भी सम्मान दिया।
जन्मभूमि से कर्मभूमि तक,
रिश्ता सरस समरसता का भाव जैसे।
बिहार से हरियाणे तक हमारा,
मेहनत कठिन व्यापक वैसे।
सादगी जीवन उच्च विचार हमारी,
जैसे चान्द की शीतल प्रकाश न्यारी।
अंगराज सी दानी भाव नहीं हमारी,
अन्तत: हौसला फिर भी रखते भारी।
चंदन सी शीतलता रखता मन में,
आम्र फल सा मिठास घोलता जहां में।
गर कोई मदद मांग ले हमसे,
सहर्ष ही हाथ बढाते झट से।
ऐसे उचित ज्ञान दिया है जिसने,
उन गुरूवर को सदा सम्मान मिले।
मुझे इस धरा पर लाया जिसने,
उन मात-पिता को अतिसम्मान मिले।
Written By Subhash Kumar Kushwaha, Posted on 04.06.2022हार नही में मानूंगा, तलवार नही में तनुंगा,
हूँ पथिक शांति पथ का, रार नही में ठानूंगा !
चाहत है कि लेना नही इम्तिहान कभी मेरा,
जियें औऱ जीने दें सबको, बन सदभाव-सबेरा !
आतें हैं निभाना हमें भी, दस्तूर दोस्ती के सारे,
दिखाई आंख तो समझो, ख़त्म किस्से तुम्हारे।
रहें हैं हरदम ही हम, विश्व शांति के घोषक,
लेकिन बख्से जाएंगे नही, मानवता के शोषक।
बड़कर भारत-भूमि से, नही स्वर्ग भी हमे प्यारा,
भारत ही है प्राण हमारे, भारत ही भाल हमारा।
कामना है कि धरा पर स्वर्ग-सा ही परिवेश हो,
हो सबका ही भला यहां, यही उत्कृष्ट उद्देश्य हो।
Written By Govind Sarawat Meena, Posted on 24.01.2023शाम पूरी तरह ढलने को थी ;क्योंकि सब जगह लाइटें जल उठीं थीं। हमेशा की तरह बाज़ार सजा हुआ था। तमाम कोठों भीतर का माहौल अमूमन वही था, जैसा विभाजन के दौर में लिखी गई सआदत हसन मंटो की अनेक कहानियों में दिखाई पड़ता है। वहां मौजूद लड़कियों के चेहरों से ही नहीं बल्कि समस्त वातावरण, दरो-दीवारों, छतों, से भी वासना टपक रही थी। ज़ीनों से चढ़ते उतरते शौक़ीन लोग। उन्हें तरह-तरह की अदाओं से लुभाती लड़कियाँ, साक्षात् काम को आमन्त्रण दे रहीं थी। बाजार की सड़कों में भी यत्र-तत्र से आती फूलों की महक राहगीरों को अपनी ओर आकर्षित कर रही थी। कुल मिलाके कहना यह कि समस्त वातावरण रमणीय बना हुआ था। कोई दलाल लेन-देन को लेकर ग्राहक से बहस, लड़ाई-झगड़ा कर रहा था, तो कोई बड़े प्रेम से ग्राहक को फंसा रहा था। हलवाई की कढ़ाई में समोसे और गरमा-गरम जलेबियाँ तैयार की जा रही थी। जिन्हें करीने से थालियों में सजाया गया था। हर कोई अपनी धुन में मग्न था और अपने मनसूबों को अंजाम देने में व्यस्त था।
एक व्यक्ति जो अपने-आप में मसरूफ़ था। तभी संगीत की मधुर स्वर लहरी उसके कानों में पड़ी तो वह बेचैन हो गया। वह आवाज़ की दिशा में खिंचता चला गया। पता नहीं कौन-सी कशिश थी कि, चाहकर भी वह स्वयं को रोक न सका। गीत को गायिका ने बड़ी कुशलता के साथ गाया था। यकायक वह बड़बड़ाने लगा, “यही है! हाँ, हाँ …. यही है, वो गीत जो बरसों पहले सुना था।” गीत को सुनकर, वह पागलों की तरह बदहवास-सा हो गया था। चेहरे से वह लगभग 55-60 बरस का जान पड़ता था। उसने लगभग पचास बरस पूर्व यह गीत ग्रामोफोन पर सुना था। इसके पश्चात उसने हर तरह का गीत-संगीत सुना — फ़िल्मी, ग़ैर-फ़िल्मी, सुगम संगीत से लेकर शास्त्रीय संगीत भी मगर वैसी तृप्ति न मिल सकी। जैसी इस गीत में थी। उस गीत की खातिर वह अनेक शहरों के कई संगीत विक्रय केंद्रों (म्यूजिक स्टोर्स) से लेकर बड़ी-बड़ी सभाओं और महफ़िलों में गया। मगर अफ़सोस वह गीत दुबारा कहीं सुनने को न मिल सका। यहाँ तक कि इंटरनेट पर, यू-टूब में भी उसने गीत के बोलों को तलाश किया। किंतु व्यर्थ वहां भी वह गीत उपलब्ध नहीं था। आज पचास वर्षों बाद उसकी यह उम्रभर की तलाश ख़त्म हुई थी। अतः उसका दीवाना होना लाज़मी था। वह निरन्तर आवाज़ की दिशा में बदहवास-सा बढ़ता रहा। आवाज़ कोठे के प्रथम तल से आ रही थी। एक पुराने से ग्रामोफोन पर उस गीत का रिकार्ड बज रहा था। वह हैरान था! कम्प्यूटर और मोबाइल के अत्याधुनिक दौर में कोई आज से पचास-साठ साल पुराने तरीके से पुराना गाना सुन रहा था। शायद कोई उससे भी बड़ा चाहने वाला यहाँ मौज़ूद था।
“आप बड़े शौक़ीन आदमी मालूम होते हैं, बाबू साहिब।” कोठे की मालकिन शबाना ने अपनी ज़ुल्फ़ों को झटका देते हुए कहा।
“शौक़ीन! ये गीत …. ओह मैं कहाँ हूँ?” वह व्यक्ति किसी नींद से जागा था।
“आप सही जगह आये हैं हुज़ूर। यहाँ हुस्न का बाज़ार सजा है।” शबाना ने ताली बजाई और लगभग दर्जनभर लड़कियां एक कतार से कक्ष में प्रवेश कर गई।
“माफ़ करना मैं रास्ते से गुज़र रहा था कि गीत के बोल मेरे कानों में पड़े– बांसुरी हूँ मैं तिहारी, मोहे होंठों से लगा ले साँवरे।” उसने उतावला होकर कहा।
“ये तो गुजरे ज़माने की मशहूर तवायफ़ रंजना बाई का गाया गीत है। जिसे गीत-संगीत के शौकीन नवाब साहब ने रिकार्ड करवाया था। इसकी बहुत कम प्रतियाँ ही बिक पाईं थी। फिर ये गीत हमेशा-हमेशा के लिए गुमनामी के अंधेरों में खो गया था। यूँ समझ लीजिए ये गीत तब का है जब पूरे हिंदुस्तान में के.एल. सहगल के गाये गीतों की धूम थी।” शबाना ने आगंतुक को गीत से जुड़ा लगभग पूरा इतिहास बता दिया।
“क्या मैं आपसे एक सवाल पूछ सकता हूँ?” शाबाना ने सिर हिलाकर अपनी स्वीकृति दी तो उसने अपना सवाल पूछा, “आप आज भी इसे ग्रामोफोन पर सुन रही हैं। वजह जान सकता हूँ क्यों?”
“रंजना बाई मेरी नानी थीं। मेरी माँ भी अक्सर उनका यह गीत इसी प्रकार ग्रामोफोन पर सुना करती थी। उन्होंने मुझे बताया था कि, यह ग्रामोफोन मेरी नानी ने उस ज़माने में ख़रीदा था। जब यह शहर के गिने-चुने रईसों के पास ही हुआ करता था।”
“ओह! आप तो उनकी मुझसे भी बड़ी प्रशंसक हैं। मेरे पास हज़ार रूपये हैं। तुम चाहों तो ये रखलो और मुझे यह रिकार्ड दे दो।” उस कद्रदान ने जेब से हज़ार का नोट निकलते हुए कहा।
“हज़ार रूपये में तो तुम पूरी रात ऐश कर सकते हो बाबूजी। इस बेकार से पड़े रिकार्ड पर क्यों एक हज़ार रूपये खर्च करते हो।” शबाना ने फिर से डोरे डालते हुए कहा।
“यह गीत मैंने आठ-दस बरस की उम्र में सुना था….” इसके पश्चात उसने इस गीत के पीछे अपनी दीवानगी की पूरी राम-कहानी शबाना को कह सुनाई। फिर अपनी दूसरी जेब से एक और नोट निकलते हुए कहा, “ये पांच सौ रूपये और रख लो, मगर अल्लाह के वास्ते मुझे यह रिकार्ड दे दो। देखो इससे ज़ियादा पैसे इस वक्त मेरे पास नहीं हैं। ये गीत मेरी उम्रभर की तलाश है।” उसने अपनी सारी खाली जेबें शबाना को दिखाते हुए, यकीन दिलाने की चेष्टा की।
“बहुत खूब! कला के सच्चे कद्रदान हो! ले जाओ ये रिकार्ड और ग्रामोफोन भी।” शबाना ने पैसे लौटाते हुए कहा, “हमारी तरफ से ये सौगात तुम्हारी दीवानगी के नाम।”
“मगर ये पैसे क्यों लौटा रही हो?” वह व्यक्ति बोला।
“हम बाज़ारू औरतें ज़रूर हैं, मगर कला हमारी आत्मा में बसती है और हम कला का सौदा नहीं करती।” शबाना ने बड़े गर्व से कहा।
***
Written By Mahavir Uttaranchali, Posted on 20.02.2023आज आप सूचित हो कि अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस है,
इस भाषा में माधुर्य ओज और लालित्य भी है,
साहित्य समाज सभ्यता और संस्कृति दर्पण है,
भावों की अभिव्यंजना हिंदी मातृभाषा में ही है,
हिंदी सारे संसार पर छायी विकास भाषा है,
हिंदी के कवि लोगों की जुबान पर बसे हुए हैं,
आज हिंदी वासियों को बहुत बहुत बधाई है,
आप सभी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर बधाई है।।
Written By Kanhaiyalal Gupta, Posted on 21.02.2023कलमकारों ने रचना को स्वरचित एवं मौलिक बताते हुए इसे स्वयं पोस्ट किया है। इस पोस्ट में रचनाकार ने अपने व्यक्तिगत विचार प्रकट किए हैं। पोस्ट में पाई गई चूक या त्रुटियों के लिए 'हिन्दी बोल इंडिया' किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं है। इस रचना को कॉपी कर अन्य जगह पर उपयोग करने से पहले कलमकार की अनुमति अवश्य लें।