मानव को अनेक चिन्तायें
चिन्ताओं के अनेक कारण
कारणों के नाना प्रकार
प्रकारों के विविध स्वरुप
स्वरूपों की असंख्य परिभाषायें
परिभाषाओं के महाशब्दजाल
शब्दजालों के घुमावदार अर्थ
प्रतिदिन अर्थों के होते अनर्थ
खण्ड-खण्ड खंडित विश्वास
मानो समग्र नैतिकता बनी परिहास
बुद्धिजीवी चिन्तित हैं
जीविकोपार्जन को लेकर!
क्या करेंगे जीवन मूल्यों को ढोकर?
व्यर्थ है घर में रखकर कलेश
क्या करेंगे मूल्यों के धर अवशेष?
चिंता न करें हमेशा चिंतन कीजिए,
समस्या जो है उसका मंथन कीजिए,,
देखिए एक दिन हर मिल जाएगा।
कर्म करते रहिए एक दिन फल मिल जाएगा।।
मत रह परेशान,मत भटकाओ ध्यान।
हौसला, हिम्मत से ही मिलेगा ज्ञान।।
चमक होगी चेहरे पर समय बदल जाएगा...
निरन्तर प्रयास से, लगातार प्रयास से,,
बढ़ती प्यास से, तेरी तलाश से,,
देख लेना पहाड़-सा वक्त भी हिल जाएगा...
कर्म का सौदा,कभी खरा कभी खौटा,,
एक दिन देख भर जाएगा तेरा लौटा,,
सुबह का निकला सूरज शाम ढ़ल जाएगा....
राधये, अच्छी नीयती, अच्छी संगति रहिए,,
हर पल हर घड़ी उस मालिक को शुक्रिया कहिए,,
वो साथ है तू खुद ब, खुद संभल जाएग.
Written By Vijender Singh Satwal, Posted on 21.03.2023वह पंजाब प्रान्त का अमृतसर,
वही जगह मुकर्रर थी.
जलियावाला था नाम उसका,
और उसकी मिट्टी सोधी थी.
दिन 13 अप्रैल 1919 का था,
एक सभा हो रही थी.
सब मिलकर विचार मे डूबे थे,
और ये भारत माता रो रही थी.
वीरो ने भारत की आजादी का,
था मिलकर दृढ संकल्प लिया.
उसी समय उस डायर ने था,
मुख्य द्वार फौज से घेर लिया.
जब तक कुछ वीर समझ पाते,
आदेश दिया उस डायर ने.
लाखों वीरो को भून दिया,
था गोली से उस कायर ने.
इस घटना ने सम्पूर्ण देश के,
था वीरों को हिला दिया.
इक छोटे से भगत सिंह को,
अन्दर से झकझोर दिया.
भरा इस मिट्टी को शीशी में,
मस्तक की शान बढाने को.
और कठिन प्रण ठान दिया,
गोरो को भारत से मिटाने को.
है धन्य धन्य वह वीर भूमि,
जिसने ज्वाला को बढाया है.
मै नमन करूं उन वीरों को,
उस धरती को शीष नवाया है.
गार्ड साहब मालगाड़ी के पीछे
सीटी बजाते हुए।
हाथ में झण्डी, कर्तव्य की भावना
चौकसी से जागना।
अंतिम बोगी, श्वेत रंग की वर्दी
गर्मी, वर्षा या सर्दी।
हाथ में टॉर्च, हिसाब की डायरी
डगमगाती बोगी।
एकांत पल, रेगिस्तान, जंगल
रेल का कोलाहल।
सरिया, खाद, कोयला लदा हुआ
पीछे का काला धुँआ।
अंतिम डिब्बा मालगाड़ी की चाल
पटरियों का जाल।
दर-ब-दर
विशाल रास्तों पर, रात-दिन सफर।
अकेलापन हावी होता ही नहीं
गार्ड साहब पर।
व्यापारी की अपनी भाषा होती है
वह जानता है तोल-मोल की भाषा
और यह भी कि कैसे पैसे को देख
खिलती हैं आँखें लोगों की
गुदगुदी होती है उनकी देह में
कि बुखार से पीड़ित आदमी भी बोल उठता है
इसलिए संकेतों में
और कभी-कभी मुँह-खोल भी
वह भाव कर ही लेता है
एक चतुर राजनेता की भाँति
इसलिए इन दिनों
व्यापारी और राजनेता में फर्क करना
मुश्किल हो गया है
इसलिए 'वोट' की खरीद-फरोख्त
जोरो पर है
और जिसके पास मनी-पॉवर है
वह चुनाव जीत जा रहा है
कुछ लोग इसे लोकतंत्र की हत्या बता रहे हैं
जो हैं प्रोग्रेसिव
और व्यापारी मंद-मंद मुस्कुरा रहा है
जैसे कह रहा हो-
"तुम ही जान रहे हो लोकतंत्र को या मैं भी?"
और लोकतंत्र बेचारा बन
व्यापारी से हारकर रो रहा है
बच्चे की तरह
और व्यापारी उसकी पीठ सहला रहा है
"मैं हूँ न बड़ा कलेजा वाला, तुझे कुछ नहीं होने दूँगा।"
और जनता उसके इस आश्वासन से आश्वस्त
पैसे के प्रभाव बीच
मजबूर है
यह कहने को कि यही सही हैं,
ये हैं तो देश सुरक्षित है
दूसरे होते तो अबतक
बेच दिए होते मुल्क
और हमसभी हंटर खा रहे होते
और हमारी चमड़ी उधड़ रही होती!
प्रश्न है, प्रश्न है,
हर तरफ बस प्रश्न है।
जवाब क्या, पता किसे
ये भी एक प्रश्न है।
प्रश्न की इस दुनिया मे
हर एक के पास प्रश्न है।
हल नहीं, उत्तर नहीं
सिर्फ-सिर्फ प्रश्न है।
जो उत्तर देना चाहते,
सुनता नहीं उन्हें कोई;
ये प्रश्न बैसे प्रश्न है,
उत्तर; के लिए बना नहीं।
ये प्रश्न कदाचार का,
भ्रष्टाचार, अत्याचार का,
लिप्त है, इसमें सभी;
उत्तर भला, क्यों हो इसका।
प्रजातन्त्र में लगाम का
प्रश्न एक हथियार है।
उपचार साथ मिल जाये
गर उत्तर भी इसके साथ है।
हथियार ये लगाम की
है, मारने की बन गई,
प्रश्न के जंजाल में,
अराजक स्थिति बन गई।
जवाब की है क्या पड़ी,
उत्तर भला क्यों चाहिए?
घेर के सवालों में,
आनंद लूट लीजिये।।
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