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Wednesday, 13 September 2023

  1. मिट्टी का घरौंदा
  2. वो समझ ना सके मेरी उल्फत कभी
  3. विचित्र अनुभूतियाँ
  4. दुख तो देना भगवान
  5. भंवरा
  6. बचपन के खेल
  7. क्या भरोसा
  8. रिश्ते
  9. ज़िंदगानी वारती है
  10. दौलत का घमंड

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मत करना कभी संदेह
मेरे चरित्र पर, मेरे मित्र
मत करना कभी अविश्वास
मेरे प्यार पर, मेरे दुलार पर

मत लेना कभी मेरा इम्तिहान
मेरे धैर्य की परीक्षा, मेरी शिक्षा
मत परखना कभी मेरे मौन को
मेरी क्षमताओं को, मेरे कौन को

मत करना कभी मुझ पर अविश्वास
मत करना कभी अटूट विश्वास भी,
मत कुचलना कभी किसी घरौंदे को
मेरे प्यार भरे एहसास को, विश्वास को

मत तोड़ना कभी मेरी उम्मीद
वरना टूट जाएगा सारा जहान,
टूट जायेगी ये माटी की मूरत
और उड़ जायेंगे प्राण पखेरू

ये जो मिट्टी का घरौंदा है ना
जिस भी कारण से बनाया गया है,
अगिनित आशाओं का दीपक जलाया गया है
इसे जलाया हुआ है 
किसी ने बहुत काल से 
बहुत काल के लिए 

अरे ! प्यारे कभी तो समझो
प्रेम की इस मधुर भाषा को
सारे जीवन का सार यही है
सारी आशा-निराश यही है 
सारा विश्वास बस यही है

Written By Manoj Kumar, Posted on 23.07.2022

हमने तो चाहा उस ने समझी ना मेरी जरूरत कभी।
सच वो समझ ना सके मेरी उल्फत कभी।।

वो मौसम वो रास्ता बेगाना,
जहां से था उसका आना रोजाना,

बने बहाना हो जाएं मुलाकात कभी।।

बडे़ हरजाई ना समझ सही,
हमने भुला दी उनकी हर कहीं,

आज नयी है पुरानी होगी मोहब्बत कभी।।

तेरा जलवा तेरा नखरा है,
आज फिर रूप यूं संवरा है,

तड़फा मन है समझ जज़्बात कभी।।

राधये मन का चैन मेरा मीत है,
होठों पर सजे वो मीठा गीत है,
वो वक्त गया बीत है थे साथ कभी।।

Written By Vijender Singh Satwal, Posted on 09.03.2023

रात मेरे कवि हृदय में
उपजीं कई विचित्र अनुभूतियाँ—

देख रहा हूँ
कुंठित भाव
संकुचित हृदय
आँखों में अश्रुधार लिए
बैसाखियाँ थामे खड़े हैं
विश्व के समस्त असहाय पत्रकार!

अनुभूतियाँ अपाहिज हैं!
त्रिशंकू बने हैं शब्द!!
पत्रिकाओं के कटे हुए हैं हाथ-पैर!
बुद्धिजीवि घर बैठे मना रहे हैं खैर!!

क्या कोई नहीं?
जो इस भयावह स्थिति
और अंतहीन अन्धकारमय परिस्थिति से
मुक्त करवा पाए समूची मानव जाति को!

जहाँ स्वच्छंद हो कर
विचार सकें समस्त प्राण
जहाँ प्रेम का ही हो
परस्पर अदान-प्रदान
जहाँ एक-दूसरे के भावों को
समझते हों सभी
जहाँ समूची मानव जाति का
समान हो
जहाँ… जहाँ… जहाँ…
बालपन में सुनी
सारी परी कथाओं का
वास्तविक लोक में
अस्थित्व हो।
जहाँ… कला और कलाकार के
पनपने की
समस्त परिस्तिथियाँ हों!!

आँख खुली तो पाया—
स्वप्नलोक से
यथार्थ के ठोस धरातल पर
आ गिरा हूँ!
सामने हिटलर चीख-चीखकर
भाषण दे रहा है!!
कला के पन्ने….
और कलाकार के सपने
बिखरे पड़े हैं!

आह!
हृदय विदारक चीख
मेरे होठों से फूट पड़ी!

•••

Written By Mahavir Uttaranchali, Posted on 10.03.2023

दुख तो देना भगवान

23SAT08100

Bharatlal Gautam
~ भरत लाल गौतम

आज की पोस्ट: 13 September 2023

दुख तो देना भगवान, लेकिन थोड़ा हंसाके,

ओ मेरे राम ओ घनश्याम थोड़ा हंसाके

हार मिले बिना कभी, जीत का होता भान नहीं,

सुख मिले बिना कभी, हर्ष का होता ज्ञान नहीं,

हंसा ही देना भगवान,लेकिन थोड़ा रुला के

बर्बाद हो जाए अगर कभी, कर देना आबाद,

निंदा हो जाए अगर कभी,तो दे देना तुम दाद,

बना ही देना भगवान,लेकिन थोड़ा बिगाड़ के

हार मिलती है कभी, तो कभी मिलती है जीत,

आपने ही तो बनाया है,जीवन की ये रीत,

जीता ही देना भगवान, लेकिन थोड़ा रूला के

Written By Bharatlal Gautam, Posted on 22.04.2023

करता भिन्न-भिन्न भंवरा,नित नूतन फूलों पर
इस टहनी से उस टहनी, रहा झूल  झूलों  पर ! !

मधुप-मिलिंद,भृमर-भ्रंग औऱ  अलि-आलिंद,
छेड़ कोमल  कलियां  करता  रसपान मकरंद।।

जब भी महके वन-उपवन मन-मोहक सुवास
छा जाता प्रकृति में अनुपम अभिनव उल्लास !!

रसिकों  का सरताज, भ्रमर-गीत  का है दाता,
ऋतु राज  बसंत का संदेश, भंवरा ही सुनाता  !!

समेटे हुए कलियां कुंवारी भंवरे का नेह अपार
करती महकने से पहले,प्रियतम का ही इंतज़ार !!

Written By Govind Sarawat Meena, Posted on 19.05.2023

बचपन के खेल

SWARACHIT6105

Anup Kumar
~ अनुप कुमार

आज की पोस्ट: 13 September 2023

खेल हमारे ना जाने
कहाँ-कहाँ से आते थे,
पेड़ पे चढ़ते, कूदते, गिरते
डोल-पत्ता हम कहते थे।

बिन पानी के नदी बनाते
कूद उसी में भागते थे,
और किनारे बच के आते
बड़े सयाने बनते थे।
नाम अटपटा लग सकता है,
उसे हम डेंगा-पानी कहते थे।।

विद्यालयों में भी चुपके से
कक्षाओं में खेलते थे,
राजा, चोर, सिपाही, मंत्री
ऐसा कुछ हम कहते थे।।

गर्मी के दिन बड़े ही न्यारे
पेड़ से इमली तोड़ते थे
खाते फिर उसके बीजों से
नया खेल हम रचते थे।
चांय-चूड़ी ही नाम था उसका
दोपहरी में खेलते थे।।

छुआ-छुई और नुक़्क़ा-चोरी
ये तो हर दिन होता था
कभी दिवालों पे डाल लकीरें
चिचवा-चिचोर भी होता था।

भइयों के संग भी हम खेलते
वो चोर तो हम सब सिपाही होते
पूरे गांव की गलियां-सड़कें
फिर अपने पैरों के नीचे होते।

झगड़ा होता खूब भयंकर
जब गोली-गट्टा होती थी
लेकिन साथ मे झूम भी जाते
जब लटटू किलों पर नाचती थीं।

पतंग उड़ाते थे जब हम
सपनों को भी पर लग जाते थे
बमपिट्टू और पिट्टू खेलकर
अपनी तशरीफों को सहलाते थे।

गिल्ली-डंडा और क्रिकेट भी
खेले धूल हैं खा-खाकर
धनुष-बाण भी खूब हैं खेलें
बांसो, सरकंडो से बना बनाकर।

लूडो, व्यापारी, चेस और कैरम
बैडमिंटन भी होती थीं,
छूती- तीती, गिट्टी, गुड़िया
बहने हमे खेलातीं थीं।।

बचपन के वो खेल निराले
बड़े सुहाने लगते थे
खेल हमारे ना जाने
कहाँ-कहाँ से आते थे।।

Written By Anup Kumar, Posted on 13.09.2023

क्या भरोसा

SWARACHIT6106

Jay Mahalwal
~ डॉक्टर जय महलवाल

आज की पोस्ट: 13 September 2023

मानव मानव को मार सकता है,
मानव मानव का नरसंहार कर सकता है,
मानव मानव को डुबो सकता है,
मानव मानव का बेड़ा सिर्फ ऊपर वाला ही पार कर सकता है।

देख हालात हिमाचल के,
जय क्यों तू इतना इतराता है,
क्या भरोसा है इस जीवन का,
सिर्फ ऊपर वाला ही जाने,
इन सांसों के पल पल का कितना नाता है।

सच में ही यह कलयुग है,
जो सोचा ही नहीं अब वह हो सकता है,
किसने सोचा था हमारा पहाड़ी राज्य,
भी एक दिन जलमग्न हो सकता है।

जय भी कर रहा अरदास प्रभु से दिन-रात,
अब तू ही हमको बचा सकता है,
डर के मारे दिन रात सहम रहे अब लोग,
प्रकृति की भयंकर मार को,
अब सहन नहीं कर पा रहे लोग,
अब सिर्फ तुझ पर ही है एक भरोसा,
तू ही डर को भगाकर,
अच्छे दिन ला सकता है अच्छे दिन ला सकता है।

Written By Jay Mahalwal, Posted on 13.09.2023

रिश्ते

SWARACHIT6107

Sapana Mishra
~ सपना मिश्रा

आज की पोस्ट: 13 September 2023

पहले जैसी बात नहीं इन रिश्तों में ।
मिलता है सम्मान यहाँ अब किश्तों में ।
हर रोज -टूटता -जुड़ता भरोसा है।
करने लगे हैं व्यापार यहाँ अब रिश्तों में।
एक दूसरे से जुड़े तो सारे रिश्ते हैं,
अब स्वार्थ ही बचा है ऐसे रिश्तों में।
अपने ही नहीं समझते अपनों के जज़्बातों को,
हर बात का निकलता उल्टा मतलब यहाँ अब रिश्तों में।
बड़े -छोटे का लिहाज नहीं यहाँ अब रिश्तों में।
बेंच दी गई है तहज़ीब यहाँ अब रिश्तों में।
बचपन से सुना था ! रिश्ता कोई भी हो ,
निभाए सच्चे मन से तो ये चलते हैं।
विश्वास उठा गया ऐसे किस्सों से।
मिटाने लगा है एहसास यहाँ अब रिश्तों से ।
पहले जैसी बात नहीं यहाँ अब रिश्तों में।

Written By Sapana Mishra, Posted on 13.09.2023

सर से रंज-ओ-अलम उतारती है
ज़िंदगानी वह मुझ पे वारती है

हम खुदा को ही भूल जाते हैं
जब अमीरी क़दम पसारती है

आप के पाए नाज़ रखने से
हर खुशी घर मेरा निहारती है

छोड़ दे जीने की तमन्ना अब
मौत तुझको तेरी पुकारती है

बात ऐसी अमल में पैदा कर
दिल की दुनिया को जो सँवारती है

ज़िंदा रहना हुआ है अब मुश्किल
बे-रूखी आप की यूँ मारती है

दूर हूँ अपने घर से मैं नाज़ाँ !
माँ की ममता मुझे पुकारती है

Written By Saddam Husain, Posted on 13.09.2023

दौलत का घमंड

SWARACHIT6109

Neeta Bisht
~ नीता बिष्ट (जौनपुरी)

आज की पोस्ट: 13 September 2023

ऐ इंसान तु इंसानियत ना भूल,
दौलत के घमंड में ना हो इतना चूर।।

ये दौलत है चार दिन की चांदनी,
जब तक है जान सिर्फ खुशियां है बांटनी।।

चला जाना है एक दिन ये सब छोड़कर,
धरी की धरी रह जाएगी तेरी दौलत शोहरत।।

क्यों दिखाता है ये दौलत की गर्मी,
चली जानी एक दिन तेरी भी अर्थी।।

वही लकड़ी वही कफन,
एक ही मिट्टी में होना है सबको दफन।।

क्यों होना दौलत में इतना अंधा,
तेरे अपने ही आयेंगे तुझे देने कंधा।।

अरे नासमझ मत कर इतना भी घमंड,
इंसान आता भी और जाता भी है सिर्फ नग्न।।

Written By Neeta Bisht, Posted on 13.09.2023

Disclaimer

कलमकारों ने रचना को स्वरचित एवं मौलिक बताते हुए इसे स्वयं पोस्ट किया है। इस पोस्ट में रचनाकार ने अपने व्यक्तिगत विचार प्रकट किए हैं। पोस्ट में पाई गई चूक या त्रुटियों के लिए 'हिन्दी बोल इंडिया' किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं है। इस रचना को कॉपी कर अन्य जगह पर उपयोग करने से पहले कलमकार की अनुमति अवश्य लें।

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