सर्दियों की धूप,
सुलगते अलाव,
चटकती मूँगफली और
एक प्याली चाय.....
अनकहे कहकहे,
पुराने दोस्त,
बिसरी यादें और
एक प्याली चाय.....
शारीरिक थकावट,
वक्त का गुजारना,
जायकेदार स्वाद और
एक प्याली चाय.....
सुस्ती से फुर्ती,
जुबां में मिठास,
अदरक,तुलसी की महक और
एक प्याली चाय.....
नुक्कड़ का खोखा,
दस रुपये का संसार,
दिल ने कहा फिर से हो जाए
एक प्याली चाय.....
आजकल कहाँ खो गया वो आम आदमी
गुम सा कहीं हो गया वो आम आदमी
माचिस की तिली हाथों से ढक कर जलाता था
उससे फिर अपनी बीड़ी सुलगाता था
घास की गठरी सिर पर उठाता था
फ्री का लेने से बहुत घबराता था
कहीं भी आना जाना होता था
पैदल ही निकल जाता था
पांव में होती थी टायर की बनी चप्पल
पैबंद लगे कपड़ों में दूर से नज़र आता था
भगवान से जो बहुत डरता था
रिश्तों की बहुत कद्र करता था
खेत में पसीना जो बहाता था
अपने भाईयों के लिए जो मरता था
सुबह से शाम तक जो हल चलाता था
थकाहारा शाम को जब घर आता था
साहूकार से पैसे लेकर चलाता था घर बेशक
तब भी जीने का मजा बहुत आता था
बैंकों से लोन लेने में घबराता था
लिया कर्ज़ समय पर चुकाता था
शर्म हया खुद्दारी दौलत थी उसके पास
सभी के सामने सिर झुकाता था
जितनी चद्दर होती थी उसकी
उतने ही वह पांव फैलाता था
रूखी सूखी खाकर करता था गुज़ारा
अपनी झूठी शान नहीं दिखाता था
बहुमंजिली इमारतें हो गई हर तरफ
इनके आगे अपने आप को बौना समझता है
घास के बिछौने पर आ जाती थी नींद
आज मखमली गद्दों पर नींद को तरसता है
लालच नहीं था उसके मन में
उसी में जीता था जो था उसके पास
छल कपट से दूर साफ मन था उसका
तंगी में भी नहीं होता था उदास
चाहता है सब कुछ फ्री उसे मिले
कितना बदल गया है अब आम आदमी
आजकल कहाँ खो गया वो आम आदमी
गुम सा कहां हो गया वो आम आदमी
वो जिसमें बंद होता है हर इक शैतान कहते हैं!
वो रहमत का महीना है उसे रमज़ान कहते हैं!
जो अपनी क़ौम अपने देश का ऊँचा करे सर तो,
ज़माने वाले ऐसे लोगों को इंसान कहते हैं!
सितम इतना हुआ के फर्क़ करना भूल बैठे हम,
इसे हम घर नहीं कहते इसे ज़िंन्दान कहते हैं!
है बढ़ जाता जो भाई चारा तो ऐसा भी है होता,
मिरी पहचान को वो अपनी ही पहचान कहते हैं!
लगे गर चोट तुमको तो निकल जाए ये जान अपनी,
हाँ ऐसे प्यार करने वालों को यकजान कहते हैं!
हर इक की सोच जब होती जुदा है दोस्त कुनबे की,
घरों को जंग का कुछ लोग तो मैदान कहते हैं!
बहादुर आदमी की यूँ लकी पहचान है होती,
जो तूफानों से लड़ जाए उसे चट्टान कहते हैं!
पिताजी कहते थे
राह हो कठिन
विपरीत हो वक़्त
चाहे काली अंधेरी रात हो
सुबह की उम्मीद रख
तू हौसला रख, हौसला रख।
पिताजी कहते थे
इस रंग बदलती दुनिया मे
तू भी अपना एक रंग रख
आवेश के घोड़ो की लगाम
अपने हाथों में रख
वक़्त ही तो है बदल जायेगा
तू हौसला रख, हौसला रख।
पिताजी कहते थे
नाज़ुक रिश्तों को
तिजोरी में रख
रूट जाए अगर अपने तो
मनाने का दम रख
तेरे अपने ही तेरे
जीवन की दौलत है
इन से ना कभी फ़ासला रख
तू हौसला रख, हौसला रख।
पिताजी कहते थे
अपने कर्मो को इबादत की
तरह पवित्र रख
बंजर भूमि में भी हरियाली आयेगी
ऊपर वाले पे भरोसा रख
तू हौसला रख, हौसला रख।
पिताजी एक दिन
काली अंधियारी रात में
छोड़ कर चले गए
यादों में रहैंगे ज़िन्दगी भर
सफर तू निरन्तर जारी रख
तू हौसला रख, हौसला रख।
बात बस इतनी भर-सी थी
उनको मुस्कुराना था
और हमें जिंदा हो जाना था
वो मुस्कुराए
पल भर के लिए
हम भी जिंदा हुए
पल भर के लिए
और फिर मर गए
उनके अगले
मुस्कराने तक के लिए
और इसी ख्वाहिश में
मरे ही रह गए के
वो मुस्कुरायेंगे कभी तो
और हम जिंदा हो जायेंगे कभी तो
पर फिर ना तो वो मुस्कुराए
और ना ही हम जिंदा हो सके
हम बस सोते ही रह गए
इंतजार है आज भी हमें
उनके मुस्कुराने वाले पल का
मेरी प्यारी बिटिया रानी तू हो गई है अब स्यानी,
मेरे कलेजे के टुकड़े अब न करों कोई मनमानी।
समझा रहें है आपको आज आपकें नाना-नानी,
हर लड़की की विधाता ऐसी लिखता है कहानी।।
आपकें विवाह के खातिर मैं देकर आया ज़ुबान,
निपुणता-कर्मठता से बनाना अब वहाॅं पहचान।
मान-सम्मान करना सभी का रखना स्वयं ध्यान,
मुसीबतों का करकें सामना बनकें रहना चट्टान।।
यह जीवन है ऐसी यात्रा जो स्त्री बिना निराधार,
वंश बढ़ाकर पालन करतीं भरा है त्याग अपार।
बिटियाॅं अपना साथ था बस इतनें ही समय का,
जुदाई का कहर सहना आप हो गई समझदार।।
मेरी प्यारी लाड़ली ना करना सोच फ़िक्र हमारी,
यहीं दस्तूर है ज़मानें का व मेरी भी ज़िम्मेदारी।
बस कर दूॅं पीलेंं हाथ तुम्हारें और कर दूॅं विदाई,
दो परिवार को जोड़कर रखतीं समझदार नारी।।
अपनों से बिछुडनें का तुम दुख कभी ना करना,
नूतन नयें रिश्तों में मिश्री जैसें घुल-मिल जाना।
विदाई समारोह के समय तुम ऑंसू नहीं बहाना,
ख़ुश होकर ससुराल जाना सुध-बुध लेंते रहना।।
नख़रे हमारे हँस के सहा कीजिए जनाब!
या फिर हमें ही दिल से जुदा कीजिए जनाब!
ख़ुद सर हूँ सरफिरी हूँ बड़ी बत्तमीज़ हूँ,
सो मुझसे थोड़ा दूर रहा कीजिए जनाब!
तनक़ीद लाख़ कीजिए मुझपर असर नहीं,
अपने हसद में ख़ुद ही जला कीजिए जनाब!
बाइल्म, बाअदब हूँ या के हूँ मैं बद लिहाज़,
जाकर मेरे मुहिब से पता कीजिए जनाब!
'ज़ोया' के गर मिज़ाज से शिकवा है आपको,
रब के हुज़ूर जाके गिला कीजिए जनाब!
भले को भला न कहना व बुरे को भी बुरा न कहना।
ये दुनिया खफ़ा हो जायेगी, सोम को सुरा न कहना।
है खाने का सलीका बदला, कांटे को छुरा न कहना।
यहां रास्ते हैं मखमली, कभी इन्हें खुरदुरा न कहना।
पर्यावरण भूरा हो चला है, भूल से भी हरा न कहना।
माया जाप करते हम व आप, धरा को मां न कहना।
बदला ये मौसम, सम है विषम, कभी ना न कहना।
ऊपर काले साए दिखते हैं, खुला आसमां न कहना।
ख़ाली है मन, ख़ूब है धन, ये हमने बताया न कहना।
वो अनदेखा सच तुम्हें, जो उसने दिखाया न कहना।
मौका संग लाए धोखा, वक्त ने समझाया न कहना।
बही-खाता वही बनाता, क्या खोया-पाया न कहना।
हार है न जीत है
मौत है न कोई ख़ौफ़ है
अघोरी हूं.
ह्रास है न प्रहास है
ख़ास है न कोई आम है
अघोरी हूं.
काम है न आराम है
मान है न कोई अपमान है
अघोरी हूं.
जीवन है न मृत्यु है
पाप है न कोई पुण्य है
अघोरी हूं.
आदि है न अंत है
अंत है न कोई आदि है
अघोरी हूं.
किसी के लिए काम जरूरी है
तो किसी के लिए अपना नाम
किसी के लिए परिवार जरूरी है
तो किसी को समाज
कर गई गलती सबको समझ के खास
बहुत जलील हो गई अब तो बात को जान
मेरी अच्छाई ने घटा दिया आज मेरा मान
सोचते सोचते बीत गई सारी रात
छूट गया है अब सबका साथ
थामे तो थामे अब किसका हाथ
ये थी मेरे अपनो की बात।।
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