एक औरत होना भी कितना मुश्क़िल है ना
ना जाने कितने दर्द समेट के निकलती होगी वो घर से
शादी के बाद भी जीती है वो डर- डर के
समझने वालों ने सूखी आँखों का दर्द समझा है
मुस्कुराहट के पीछे का दर्द समझा है
पर कभी- कभी जीवनसाथी भी नहीं समझ पाए हैं
उस दर्द को उसकी तकलीफ़ों को
जो हर पल साए के जैसे साथ रहता है
क्यूँ नहीं समझना चाहते हो तुम उसे?
तुम्हें क्यूँ नहीं जानना है उसके घटते प्रेम को?
तुम्हें यही लगता है क्या?
बच्चे हो गए हैं
परिवार को वारिस मिल गया
मुझे बुढ़ापे का सहारा मिल गया
दादा- दादी को वंश का तारा मिल गया
अब मुझे उसके साथ की कोई ज़रूरत नहीं
बस तुम्हें तो वो तब प्यारी लगती है
जब तुम्हें आलिंगन में आना हो
फ़िर उसके बाद फ़िर दूर हो जाते हो
कुछ दिनों के लिए फ़िर से उसे अकेला
तन्हा और रोता बिलखता छोड़कर
उसका काम तो यही है ना
चूल्हा जलाए परिवार के लिए खाना बनाए
वो पूरा परिवार देखती है घर- खेती सम्भालती है
पर उसके मौन को कोई साथ देता नहीं
कोई उस मौन और उसके आँसुओं को पौछना नहीं चाहता
सुबह उठकर हर कार्य में हाथ बांटती
फ़िर भी क्यूँ है सास बहू को ही डाँटती
कैसी बनाई है ये रीत प्रभु
उसपर से दुःखों, अकेलेपन की चादर क्यूँ नहीं छटंति?
तुम्हारी छोटी सी खाँसी पे मर्ज़ के लिए
रात- रात भर जागने वाली पत्नी
तुम्हें उसके
मासिक धर्म के दिनों में उसके टूटते शरीर को सम्भालते क्यूँ नहीं
और कितना है तुम्हें अर्धांगिनी को तड़पाना
मकसद कुछ भी हो नादान कलम का
ज़रूरी है समाज और गलत सोच वालों को जगाना
कोई एक अभागा भाई,
किया करते हैं हरदम -
अपने से अपने ही मन में,
अनेकानेक प्रश्नें।
काश! मुझे एक बहना होती,
साथ मिलकर पढ़ा तो करते।
रक्षाबन्धन के त्योहार पर उससे,
पहले राखी हम बंधवाते।
फिर,
उनकी प्यारी कोमल हाथो से,
अपनी सुनी मस्तक पर,
चन्दन का हम लेप लगवाते।
और,
उसकी प्यारी हाथों से,
मिठाइयाँ हम बड़े शौक से खाते।
जब भी आता राखी का त्योहार,
दिल दर्द से भरा रहता है।
फिर,
बार-बार यही बातें दिल में,
सदा सर्वदा गदगदाते रहता।
जब भी राखी का त्योहार है आता,
नैन पलकें बिछाए रहता।
हाल फैलाए आहें भरता।।
दूसरों को आनंदित देख-देख कर,
अंसुअन की धार बहाए जाता।
मन ही मन गुदगुदाए जाता,
काश! मुझे एक बहना होती,
सुनी कलाई पर राखी तो बंधवाते।
जब-जब अकेले में हम रहते,
बहना ना होने का अहसास हो आते।
और-
अंसुअन की धार बह ही जाते।।
और मन ही मन प्रकृति से,
अनेकानेक प्रश्नें हम करते रहते।
इस यतीन को क्यों लाए जहां में,
निरूत्तर क्यों हो रहे प्रकृति।
क्या खता हुई थी हमसे,
यही सवाल गुदगुदाते रहता।
जब भी राखी का त्योहार है आता,
नैन पलकें बिछाए रहता।
Written By Subhash Kumar Kushwaha, Posted on 15.06.2022संभला हूं मैं गिरकर,
जीया हूं मैं मरकर,
फिर भी जान अभी बाकी है।
शायद इम्तिहान अभी बाकी है।।
ताकतें रहते थे प्यासी निगाहों से,
जानें कितने गुजरते थे इन राहों से,
बेचैन था, परेशान था सुलझ न पाई उलझन अभी बाकी है।
बड़ी मुश्किलों, बाधाओं से गुज़रा हूं,
ठुकराया गया नादान -सा भंवरा हूं
मेहनत कश कमेरा हूं देख जरा निशान अभी बाकी है।
कितना चाहा,किस-किस से न मांगा,
मर्यादाओं में बंधकर रहा मर्यादा को न लांगा,
कच्चा था वो धागा फूल पिरोते टूट गया लेकिन चमन अभी बाकी है।
माना संसार का व्यवहार बडा़ तीखा है,
हमने भी हारकर जीतना सीखा है,
आज फिर एक मौका है मिला सबक पहचान अभी बाकी है।
रूत बदली,मौसम बदला बहार का इंतजार है,
इतना निर्दई नहीं तू इतना तो ऐतबार है,,
राधये, बरसता उसका प्यार है वो भगवान अभी बाकी है।।/p>
Written By Vijender Singh Satwal, Posted on 25.02.2023
ये बादलों का गरजना,
तेज बारिश का बरसना,
देखो आया है सावन का महीना।।
चारो तरफ घना कोहरा,
चिड़ियों का चहचहाना,
यही है सावन का महीना।।
हरे भरे पेड़ पौधे,
देख कर मेरे मन को रौंदे,
शब्द ही नही है आगे क्या बोले।।
देखकर खेतो की सुंदर हरियाली,
किसानों के घर की जो खुशहाली,
यही तो है सावन की कहानी।।
प्रकृति का मनमोहक दृश्य है सावन,
कहते हैं ये महीना है बहुत ही पावन,
यही तो है सावन।।
आओ कभी पहाड़ों में करने भ्रमण,
सूक्ष्म शब्दों मैं ही कर पाई वर्णन,
देखो आया है सावन।।
शब्दों का क्या कहूं
कीमत बहुत अनमोल।
एक शब्द के अनर्थ सेे ही
खुल जाती है पोल।।
शब्दों का कीजिए
समझदारी से उपयोग।
वरना कुछ का कुछ, अपने बारे में
सोचते हैं लोग।।
शब्द- शब्द मिलकर पंक्तियां बनी
पंक्तियों से रच गई कविता।
कविता जो दिल को भा गई तो,
शब्दों की बहने लगती मन में सरिता।।
सरिता से शब्दों का बहना , जो मन मोहक
लगने लगता है।
रचनाकार तो भइया फिर सब कुछ
छोड़कर एक नई रचना, रचने लगता है।।
शब्दों का क्या कहूं
कीमत बहुत अनमोल।
एक शब्द के अनर्थ सेे ही
खुल जाती है पोल।।
शब्दों का सही समय और सही जगह पर
उपयोग कर स्वामी विवेकानंद जी हुये महान।
शब्दों के जहां जादूगर बसते
वह भारत देश महान।।
जय हिंद और जय शब्दकोश की,
बिनती सभी से हाथ जोड़कर
शब्दों का सही कीजिए उपयोग।
शब्दों से खेलकर किसी को परेशान
करने का मत पालिये रोग।।
शब्दों का क्या कहूं
कीमत बहुत अनमोल।
एक शब्द के अनर्थ सेे ही
खुल जाती है पोल।।
आर जाने जो तुम्हारे कपड़े
शर्म ओढ़े हैं हमारे कपड़े
नये कपड़ों की दिवानी दुनिया
हम पहनते हैं पुराने कपड़े
इनसे तहज़ीब नुमा होती है
हैं तवारीख़ हमारे कपड़े
काट पहना था मिरे दादा ने
अब हैं अतलस के हमारे कपड़े
नंगी नफ़रत के सुलगते युग में
हैं मोहब्बत से हमारे कपड़े
शाह मुज़मिल है लक़ब अपना तो
हैं लक़ब वाले हमारे कपड़े
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