हे भारत माँ के लाल-काल
तुम जागो फिर एक बार।
सदियों से कश्मीर बिलखता,
अरुणाचल रहा कर विलाप।
शहीदों की चिताएँ सिसकती,
सह-सह स्वार्थी कटु अलाप।
होते शहीद जवान सैंकड़ों,
सीमा लहुँ -लुहान है।
हो चुकी हद सब्रो-करार की,
बाँकी रहा कौन इम्तिहान है।
लूट न जाए मान धरा का,
कहि बेच न खाये देश गद्दार हे।। तुम जागो....
पाषाण पिघलते हिमगिरि के,
हल्दी घाँटी करे गुहार।
कलियां कलुषित केशर की
मेवाड़ रही अपलक निहार।
झांसी का मैदान लूटा है,
झुका शीष विंध्याचल का।
छलनी हुआ बाग़ जलियाँ
घायल अयोध्या रघुकुल का।
बनकर सुभाष-तात्या-भगत,
मिटा डालो द्रोही किरदार।। तुम जागो......
रहे खींच निर्लज्ज दुसाशन
बहु-बिटियों के पावन चीर।
माताओं की गोद रौंदते,
कपटी कंश दैत्य ज़मीर।
जड़े धर्म की रहे काट,
अधर्मी करते धर्मांतरण।
वह नही देश की थी आजादी,
सत्ता का था सिर्फ हस्तान्तरण।
कब तक रहेंगे होते यूंही,
स्वपन शिवा के निराधार।। तुम जागो फिर....
जाती -ओ-भाषावाद की,
फलती नित नागफनी।
जाफ़र-ओ-जयचंद द्रोही,
बने राष्ट्र रक्षा के धनि।
संस्कृति निर्वस्त्र नाचती,
चटनी बटी सभ्यता की।
न्याय हुआ अंधा धृतराष्ट्,
नही परख सत्यता की।
आततायी-ओ-अत्याचारी,
रहे बना भृष्ट सरक।
हे भारत माँ के लाल-काल
तुम जागो फिर एक बार ।
सत्य और अहिंसा दोनों ही लाचार हों गये,
चोरी ओर झूठ ठगों के पक्के यार हों गये।
नफ़रत ओर दगा ने ऐसा जाल फेंक दिया,
घोसलों से मुहब्बत के... पंछी पार हों गये।
अब बेज़ा सुबकने से हाथ कुछ न आयेगा,
वफ़ा के बहुत कम बचने के आसार हों गये।
आंखों से आंसू दिल से आह निकाल कर,
जनाजा ग़म का हम सर-ए-बाज़ार हों गये।
दोस्त तमाम दुश्मनों से जा कर गले मिले,
बाग़ी खंजर दगा के मिरे आर -पार हों गये।
गोली बारूद तमाम हथियार सब फ़ैल हुए,
कमब़ख्त मीठे बोल मौत के हथियार हों गये।
महबूब का आँचल छाया है चाँदनी की तरह,
प्यार और आदर से भरी हुई हर गोदी जैसी नरमियों से भरा।
उसके आँचल की छाँव में मिलती है सुख की राहत,
जिंदगी की गर्मी से हमेशा लबों पर हंसी की मुस्कान तरह देता है तारा।
आँचल में छुपी बचपन की खुशियाँ लेकर वो आती है,
हर मुसीबत में सहारा बनकर दिल को बहुत सुकून देती है।
महबूब के आँचल की महक से महकती है ये दुनिया,
संगीत के सुर में निगाहें झुकाकर खुद को खो जाती हैं हर तरफ खुशियाँ।
जैसे मौसम की बादलों की छांव बहार लाती है सबको,
महबूब का आँचल भी हमेशा देता है वो आशा का उजाला सबको।
उसकी गोदी में बसी सारी चाहतें पाएं मंजिल को,
संगीत के स्वरों में नचाएं जीवन के सभी खुशहालों को।
महबूब का आँचल बनकर सुनहरी रोशनी फैलता है,
सभी चिंताओं को भगाकर खुशियों का संगीत गाता है।
विश्वास की बांधने उसकी मदद से लोग जीते हैं,
महबूब का आँचल हर दिल में खुशियों की बारिश कराता हैं।
चलो आओ, इस महबूब के आँचल में हम सब मिलकर बसें,
जीवन की राहों में खुद को खोलें और खुशियों को पेश करें।
महबूब का आँचल सदैव हमारी सुरक्षा करेगा,
इसकी छांव में खोकर हम हमेशा सुखी और समृद्ध रहेंगे, यह आशा है बस।
जरूरी था रास्ते बदलना
मगर चाहता कौन था
गुजारिश थी समय की
जो कहीं लूट गई
बार हृदय पर कर
ख्वाब को कांच का बना कर
चकनाचूर कर गई।
लाचार सा मानो वक्त हो गया
मुंह को सिले कहीं सो गया
दर्द था नदिया की लहरों में
दूर किनारे पर वो भी रूठ गया।
हूक लगा लगा कर थक गए
ढलती शामों के द्वार भी फीके पड़ गए
दीदार की तलब थी
रोज़ खिड़की पर बैठ
कुछ शामें याद करना
मगर कुछ भ्रम अभी और बाकी था।
ख़ाली ख़ाली सा सब लग रहा था
हर दर्द बेदर्द बन रहा था
कहां से लाते वो सुकून
जो उड़ती धूल में कहीं खो गया
मानो मेरे वजूद को भी उसमें डूबो दिया।
मेरे जैसा प्यार तुझ से करेगा कोन.!!
सपना झूठा ही सही तुझे दिखाए गा कोन.!
तेरे लिए दूसरा जहर फिर खाएगा कोन!
जरा मुझे भी मिलवा दे वो सक्स है कोन..!!
मेरे जैसा प्यार....!
में भी तो देखू हम से बड़ा आशिक है कोन.!!
तेरे लिए शहर घर वार मेरे जैसा छोरे गा कोन.!
जरा में भी तो देखू वो दूसरा सक्स है कोन.!
मुझ से अच्छा प्यार तुझ से करता है कोन..!!
मेरे जैसा प्यार....!
मेरे जैसे पीजा बर्गर तुझे खिलाता है कोन..!!
तेरे साथ मंदिर दूसरा सक्स जाता है कोन.!
मेरे जैसा तोफा दूसरा लेकर देता है कोन.!
मेरे जैसा खिड़की से दूसरा देखता है कोन.!!
मेरे जैसा प्यार....!
तेरे लिए अब कविता दूसरा लिखता है कोन..!!
मेरे जैसे सब्दों में तुझे दूसरा सजाता है कोन..!
रात में तुझ से मिलने नलके पे आता है कोन.!
तेरी सहेली के द्वारा तुझे गिफ्ट अब भेजता है कोन..!!
Written By Deepak Jha, Posted on 16.07.2023
एक बार फिर से भीड़ ने
इंसानियत को कुचल डाली
हैवानियत की शक्ल में
रक्त रंजित कर मानवता की हत्या कर डाली.
वो आँखे और दर्द भरी रूह हर पल
लाठियों के आघात से सिसक रही थी
और पुलिस की मदद की आस लगाए बैठी थी
कौन थे ये हैवान रूपी भीड़
जिनके हाथो पर थी अपवाहों की लाठियाँ
क्या भीड़ के नाम कर खुद ही न्यायपालिका बन बैठी थी.
आखिर कब तक ये अपवाहों का तंत्र इस तरह फैलता जायेगा
भीड़ के नाम पर खुद न्याय कर इंसानियत को कुचलता जायेगा
आखिर कब तक ये भीड़ तंत्र भेड़िया तंत्र बन
इंसान को इंसान न समझ
उसे पीट-पीट मौत के घाट उतार दिया जायेगा ।
दिल से वेहशत मिटाओ रब राखा!
जा रहे हो तो जाओ रब राखा!
दिल का दर खोलती हूँ जाओ तुम,
जश्ने रेहलत मनाओ रब राखा!
कर के मुझको हवाले लहरों के,
कह रही है ये नाव रब राखा!
क़ल्ब से अपने मेरे नक़्शे पा,
है मिटाना मिटाओ रब राखा!
जिस्म की वेहशतें मिटानी हैं,
ज़ोया दिल को जलाओ रब राखा!
पीठ पीछे रक़ीब से मेरे,
प्यार, यारी निभाओ रब राखा!
मौत आई है सो उसे सीने,
'ज़ोया' हँस के लगाओ रब राखा!
इक बस्ती बनी है जंगल में
इक ख्वाब़ उगा है जंगल में
हाल ऐसा है शहर का अपने
हम शहर में या कि जंगल में
झूठ जितना दहाड़ ले लेकिन
शोर गूंजेगा सच का जंगल में
मेरी आदत है सच बयानी का
मैं घर रहूँ या रहूँ मैं जंगल में
अब कहां महफूज हैं ये जंगल
आदमी घुस गया है जंगल में
जो कन्या-भ्रूण गर्भ में मार देते हैं!
वे नवरात्रों में मां को उपहार देते हैं!
जो पुत्र की प्राप्ति को प्रसार देते हैं!
वे नवरात्रों में मां को उपहार देते हैं!
जो बेटी को ही दोषी करार देते हैं!
वे नवरात्रों में मां को उपहार देते हैं!
जो शब्दों से अस्मिता उतार देते हैं!
वे नवरात्रों में मां को उपहार देते हैं!
जो बहु के हिस्से में तकरार देते हैं!
वे नवरात्रों में मां को उपहार देते हैं!
जो समानता को घोर प्रहार देते हैं!
वे नवरात्रों में मां को उपहार देते हैं!
मैं रो रहा हूँ
ताकि मेरे आँसू गिर सकें
जब मेरे आँसू मिट्टी में मिल जाएँगे
यह धरती पूरी तरह मेरी हो जाएगी
सपना
कुछ कह रहा है
वह आँसू बन गया है
गाल पर वह लुढ़क रहा है
कभी खुशी तो कभी विछोह बनकर
अँधेरा हो रहा है
समंदर का पानी बिल्कुल काला
नारियल के पत्ते हिलोरे ले रहे हैं
वे अब सोएँगे नहीं
सुबह सूरज निकला है
बहुत ही धीरे
श्वेत शंख को चूमने की कोशिश
किरणों ने की है
दूर हूँ
गाँव याद आ रहा है
माँ याद आ रही है
उसकी बीमारी मुझे हँसने नहीं दे रही है
वह कबतक मेरे साथ है
रेत से पूछ रहा हूँ!
कलमकारों ने रचना को स्वरचित एवं मौलिक बताते हुए इसे स्वयं पोस्ट किया है। इस पोस्ट में रचनाकार ने अपने व्यक्तिगत विचार प्रकट किए हैं। पोस्ट में पाई गई चूक या त्रुटियों के लिए 'हिन्दी बोल इंडिया' किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं है। इस रचना को कॉपी कर अन्य जगह पर उपयोग करने से पहले कलमकार की अनुमति अवश्य लें।