हमारे
रिश्तों में दरारें
कभी ना पड़े
हम ऐसी ही
कामना करें
कोशिश भी सदा
यही हो कि हम
एक-दूसरे की
जिंदगी में भरपूर
खुशियां ही खुशियां भरें
जिससे
महक जाए फिर
जीवन का हर एक क्षण।।
Written By Manoj Bathre , Posted on 12.05.2021
जी नहीं पाएगा प्यार बिन आदमी
है पवन की तरह लाज़िमी प्यार भी
हर तरफ़ बस अँधेरा था क़ायम यहाँ
आप आए इधर हो गई चाँदनी
तुझसे नाता मेरा है पुराना बहुत
मैं समुन्दर तेरा तू है मेरी नदी
प्यार इतना बढ़ा जैसे बरगद की जड़
दास्ताँ प्यार की लिख न पाई सदी
किसको मतलब यहाँ कोई मरता मरे
हर कोई हो गया है फ़क़त मौसमी
रह गई है सिमटकर के जुमलों में बस
इक तिजारत के माफ़िक सियासत हुई
ऐसे `आनन्द` हैं लोग संसार में
जिनके काले हैं दिल और ज़ुबाँ चाशनी
बहती नदी से ये बादल,
अनवरत रहे बस टहल,
हौले से निगल लेता अंधेरा चाँद को
क्षणभर के लिये हो जाता वो ओझल...।
बहती नदी से ये बादल,
कल-कल बहते जैसे जल,
सुनसान राहों के यही हमसफर हैं
तन्हाई में बेपरवाह रहे साथ चल....।
बहती नदी से ये बादल,
न शोर कोई,न हलचल,
सोचने को मजबूर करते ये हरदम
देखते जब इन्हें लगातार कई पल....।
बहती नदी से ये बादल,
ठोस लगते कभी,कभी दलदल,
बनते बिगड़ते स्वरूप इनके अनेक
रूई के पुलिंदों से ये सपनों के महल...।
बहती नदी से ये बादल,
शशी करता नौका रूपी छल,
संग सकारात्मकता लिये चलता रहता
फिर लाता संग रवि के नायाब कल,
बहती नदी से ये बादल.....।
Written By Sumit Singh Pawar, Posted on 17.09.2021
बरसात के अंदेशे मात्र से
बरसाती मेंढक आ जाते है।
फूल खिलने से पहले
भंवरे मंडराने लगते है।
जिसको वीरान खेत मिल जाये
वहाँ कुकुरमुत्ते अपना हक
जमा लेते है।
चुनाव की खबर मात्र से
गली मोहल्लों से नेताओ का
हुजूम सड़को पे आ जाता है।
जिनको अपनो का वोट ना मिले
वो भी हवाओं में,
सत्ता पर आसीन होने का
ख्वाब आने लगता है।
मौसम बदलते ही
सब ऐसे नदारद हो जाते है
जैसे गधे के सिर से सींग
गायब होते है
एक पल छाई, आसमा में बदली
दूसरे पल गायब हो जाती है।
कई अरसे से यही परम्परा
समाज को, देश को
दीमक की तरह चट
कर रही है।
सिंह की गर्जना थी जिसकी आवाज में
दुश्मन भी कांपते थे जब ललकारते थे
कवि हृदय अंदर कोमल थे दिल के
सुनते थे सभी जब स्टेज से दहाड़ते थे
सादगी से भरपूर था सारा जीवन उनका
धोती कुर्ता भारतीय परिधान थी उनकी पहचान
अपना बना लेते थे अपनी मीठी बाणी से
विरोधी भी करते थे उनकी अच्छाई का बखान
राजनीति के पक्के मंझे खिलाड़ी
इरादे के पक्के ईमानदारी के स्तंभ
गरीबों के सच्चे हितैषी लालच से दूर
ज़रा भी नहीं था अपनी ताकत का दम्भ
राजनीति में अपनी अमिट छाप छोड़ी
दिल न किसी का दुखाया कभी
कोई इस दुनियां में नहीं है पराया
गैर नहीं कोई यहां अपने हैं सभी
यू एन ओ में जब गरजे
हिंदी में ललकार भरी
पहचान मिली अपनी हिंदी को
अंग्रेज़ी कोने में जा हुई खड़ी
नाम था उनका अटल बिहारी
थे विरोधियों पर बहुत भारी
सत्ता भी उनसे लेती थी सलाह
बातों ही बातों में चोट करते थे करारी
मां, ममत्व का सागर
असीमित प्रेम का भंडार
आते ही इस संसार में
होता मानव का प्रथम यही उदगार
मां, केवल एक शब्द नहीं
इसमें छिपी हमारी भावनाएं अपार
इस जीवन का निर्माण तुम्हीं से
करती खुशियों का तुम संचार
अपने कर्तव्य पथ पर तुम
कर देती अपना जीवन निसार
अदम्य साहस और विश्वास संग
साक्षात् देवी की प्रतिमूर्ति हो तुम
झेल जाती संकट हजार
मुश्किल है तुम्हे शब्दों में बयां कर पाना
कर्तव्य है तेरे इतने अपार
मां तेरे प्रेम और वात्सल्य पर
नत मस्तक है सारा संसार
मील के नौकरी में,
पाँच लोगों का परिवार,
ख़ुशी-ख़ुशी रहता हैं।
इन खुशियों के पीछे,
बाबूजी धूप में जलते हैं।
गर्मी में पसीने से,
कपड़े का धीरे-धीरे सड़कर फट जाना,
बरसात में,
कपड़ों पर बरसाती लगा दिखना,
ठंड में,
स्वैटर का फटना,
और उस पर चिप्पी का लगा होना।
माँ कहती है
इस बार एक जोड़ी कपड़ा सिला लेना,
बाबुजी के पास हर सवाल का जबाब है
तभी बाबुजी कह उठते है,
अभी तो,
बच्चों के फ़ीस अदा करनी है,
बेटी की विवाह के पैसे जमा करने है।
और न जाने कितने झूठ हर दिए,
बाबूजी माँ से,
बोल दिया करते हैं।
मैं प्रत्येक वर्ष की तरह,
इस वर्ष भी देख रहा हूं,
हमारे लिए चप्पल, जूते, कपड़े,
खिलौने लाये है।
माँ के लिए ,
साड़ियां लाये है।
माँ पुछती है अपने लिए क्या लाये हो,
तो कह देते है,
अपने लिए ...?
कुछ दिन पहले तो लिया था।
उनका यह कुछ दिन,
कितने वर्षों को छिपा कर रखा हुआ है
माँ कहती है, तुम्हारे
बाबुजी को झूठ बोलने भी नहीं आता,
मैं अगर कहता हूँ...
माँ घर का दीप है
तो पिता,
उस दीप में जलने वाला
बाती
जो खुद जल कर,
घर को रोशन करते है।
घर में सबसे पहले उठ के वो सबसे आखिर में सोने जाती है
चाय नास्ता खाना पीना बर्तन झाड़ू पोछा में ही लग जाती है
अलग अलग है लोग यहाँ अलग अलग है सब की फरमाइश
सबकुछ करने में दिन की रौशनी रात की चाँदनी हो जाती है
चेहरे पर प्यार भरी मुस्कान लिये वह आँखों से चिल्लाती है
दिल में हो चाहे कितने गम हर कर्तव्य वो अपना निभाती है
खाना खाना , रोज नहाना , लिखना पढना , वक्त पर सोना
मैं हर काम से भागा करता हूँ वो हर नखरे को मेरे उठाती है
काँटों के पथ पर चल कर भी वह सदा गीत मधुर ही गाती है
सब के खाने के बाद खाना उसकी तो आदत सी हो जाती है
ये ना करना वो ना करना इसको ऎसे कर उसको वैसे करना
साँस ससुर पति बच्चों में ही बंध कर बाकी उम्र ढल जाती है
क्या क्या लिखूँगा कागज पे मेरी कलम सोच में घिर जाती है
माँ को शब्दो के जरिये बतलाने में एक उम्र कम पड़ जाती है
जितना भी लिख सकूँगा मैं वह सागर में बूंद समान ही होगा
फिर भी ये मैं सीख रहा हूँ माँ की ममता कैसे लिखी जाती है
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