कर दो कृपा अब हे प्रभु |
यह प्रलय नर्तक रोक दो ||
अपनी प्रकृति को अब |
थोङा सा रोक दो ||
माना कि बहुत मैने |
अनाचार किया है ||
तेरी प्रकृति के साथ मे |
खिलवाड किया है ||
इसकी सजा हमें नित |
मिल ही रही है ||
नित बीमारियों से हमें |
सीख मिल ही रही है ||
अब अपनी दया दृष्टि से |
न दूर करो तुम ||
हम अज्ञान है अनजान अब |
क्षमा भी कर दो तुम ||
रही यादों में हरदम तेरी
अंखियां मेरी बेवस रोती।
ढलके मेरी चिलमन से `वो`
चमके उठें आंसू बन मोती।।
करवटें बदल-बदल गुजरें
ये रतियां रसभरी निगोडी।
छेड़े बैरन बात पिया की,
हस-हसकर चांदनी बतोड़ी।।
घिर आई घनघोर घटायें,
मानो विरहन की अलकें ।
चमक रही बन शबनम,
बरसी बारिश बन पलकें।
रहे अगन लगा हिवड़े मेरे,
कोयल के गीत निराले।
चिड़ा रहे यौवनता मेरी,
कौमुदी के धबल उजाले।।
कटता नही पलभर भी अब,
ज़ालिम वक़्त बिन तेरे यह।
हुआ रिक्त पनघट भावों का,
तेरे आने की आहट सह-सह।।
रुक न जाये धड़कन मेरी
देर न कर अब आ भी जा।
गाये थे हमने जो गीत प्रेम के,
एक बार आकर तू गा भी जा।।
वो हक़ की तेज़ आंधियों में बे-वज़ह अकड़ता बहुत है,
सुखे पत्ते सा टुट के उड़ जायेगा जो भड़कता बहुत है।
अपनी जबां से नफ़रत के नये नये नगमे गा रहा है वो,
जान ले सूंघ के झूठ मरे गीदड़ सा बेज़ा सड़ता बहुत है।
अन्न जल जमीं और आबरू पर हमला करने वाला नीच,
कीड़े पड़ पड़ के हर पल में सौ हज़ार बार मरता बहुत है।
धरती के हर कोने में बीज बोने वाले किसान सब अमर,
इनका पसीना हर दाने में इत्र से ज्यादा महकता बहुत है।
बहन बेटियों की खातिर हर सांस हर बार लाख बार फ़ना,
`बाग़ी` के खून का हर कतरा वफ़ा करके चमकता बहुत है।
बहाने इस नादान दिल के
जब याद आते हो तुम
बस ये सोचते हैं हम
क्या कहें, कैसे इज़हार करें
जब तुम्हारी आँखों में ये ख्वाब हैं
हर रात ये रुसवाई है
मगर तुमसे दूर जाने की है चाहत
हमें नहीं पता क्यों ये हक़ीक़त
बहाने इस नादान दिल के
मोहब्बत की कश्ती लहरों में डूबती जाती है
तुमसे मिलने की आस दिल में जगाती जाती है
मगर हर बार जब हम कहते हैं
तुम्हारे बिना जीने की आदत बड़ी ख़राब है
बहाने इस नादान दिल के
हमेशा तुम्हारे पास होने का सपना है
जब भी तुम्हें देखें, मुस्कान हमारी लबों पर सजना है
पर बहानों से हमें दूर तुम जाते हो
और हम ये नादान दिल रोते रहते हैं
बहाने इस नादान दिल के
हमें प्यार का इस्तेमाल नहीं आता
बस ये दिल हमेशा तुम्हारा दीवाना है
जब भी ये बहाने बनाता है
हमें तुम्हें याद करने का बहाना है।
अचानक से भला ये क्या हुआ है
वो इतना आज क्यूँ बहका हुआ है
कहीं बाहर से लौटा आज है वो
इसी से धूल में चेहरा हुआ है
बतायेगा तभी मालूम होगा
ग़मों का दिल में क्यूँ मेला हुआ है
हुआ नाराज़ जबसे ये ज़माना
हवा का तबसे रुख़ बदला हुआ है
सितम उसके नहीं भूला हूँ अब तक
मुझे वो आज भी भूला हुआ है
मुझे मन्ज़ूर हैं ये गालियां भी
चलो मन उसका कुछ हल्का हुआ है
गया दिल तोड़कर `आनन्द` जबसे
गुलों का रंग भी फीका हुआ है
Written By Anand Kishore, Posted on 24.05.2021
निर्मोही सजनी तू ना समझी मेरे मन के पीड़ को
फैसले फासले के थे तुम्हारे कैसे दोष दूँ तकदीर को ।
यूँ तेरा इश्क में छलना मगर मैं चलना नहीं सिखा
सिखा ठोकरें खाकर जीना मगर मरना नहीं सिखा
हंसते रोते सोते गाते मैंने हरपल तुझको चाहा था
साक्षी है चाहत की दास्ताँ, कविता की तहरीर को
निर्मोही सजनी तू ना समझी मेरे मन के पीड़ को ।
एहसासों से खुद जुदा हुए तुम मैंने कब चाहा था
बसाया था दिल में, जैसे सिया राम को भाया था
मुकद्दर में थी नहीं जुदाई तुम्हारे किरदार खोटे थें
फिर कैसे गलत समझूँ अपनी हाथों के लकीर को
निर्मोही सजनी तू ना समझी मेरे मन के पीड़ को ।
एहसान समझ, ये मन बावला तुमसे प्रीत लगाया
छोड़कर सारे देवालय हृदय में तेरी छवि बसाया
खुदा तुम मेरे हो न पाए, माणिक्य तुमने खोया है
अब अपने काबु में रखना अपने नयन के तीर को
निर्मोही सजनी तू ना समझी मेरे मन के पीड़ को ।
हर लम्हा मेरा ठहर गया जब तुम रिश्ता तोड़ गई
रूप चाँद सा था तुम्हारा साथ उजाले का छोड़ गई
मोह आया ना माया मिली तुमको अपने प्यार पर
तुम धूर्त अज्ञानी जान ना पाई रिश्ते की तासीर को
निर्मोही सजनी तू ना समझी मेरे मन के पीड़ को ।
अब कैसे समझूं निर्मोही सजनी, तू थी अनमोल रे
मोल न जाना मेरे दिल के थे तेरे बिगड़े हर बोल रे
मेरे जज्बातों से खेला तुने ज्ञात अज्ञात पहेली थी
अब पसंद नहीं करता दिल तेरी किसी तस्वीर को
निर्मोही सजनी तू ना समझी मेरे मन के पीड़ को ।
वृक्ष होते हमारे जीवनसाथी
जिनसे जीवन में खुशहाली
चलो चले करते हैं प्रण हम
एक काटे, दस वृक्ष लगाए हम
जीवन की आधार वृक्ष है
खुशियों की श्रृंगार वृक्ष है
फिर भी काट रहे हैं वृक्ष हम
क्या इतना स्वार्थी बन गए है हम
वृक्ष लगानी है भविष्य बचानी है
ऐसी कई बड़ी बातें हम बना लेते हैं
वृक्ष लगाकर क्या सेवा करते है हम
क्या उसी उत्साह से इन्हें बढ़ाते है हम
वृक्ष पशु पक्षियों का होता बसेरा है
क्यों हम उनके निकेतन उजार रहे है
क्या पराए का घर, बसा न सकते हम
तो क्या उनके घर को, उजार दे हम
जीवनसंगिनी सा साथी है वृक्ष
मानवता का पूजारी है वृक्ष
इनके ही बल तो जीते हैं हम
फिर भी करते है कत्ल इन्हें हम
कुछ ऐसे भी बिन फलहारी लगाए वृक्ष
जो सतत् ही आक्सीजन देती हमें है वृक्ष
क्यों अपना ही फायदा ढूंढते रहते है हम
कभी तो आगे के बारे में भी सोच ले हम
क्यों वृक्ष महोत्सव की जरूरत पड़ रही
क्यों वृक्षारोपण अभियान चलानी पड़ रही
क्या वृक्षों के प्रति, जागरूक नहीं है हम
नहीं है तो क्यों नहीं है हम, क्यों नहीं है हम
सरकारी अनुदान प्राप्त विद्यालय में
मैं एक अस्थाई शिक्षक हूँ !
साहित्य का विद्यार्थी होकर भी
मैं एक अस्थापित कवि हूँ
हर बार लौटा दी जाती है मेरी कविता
शहर के एक प्रसिद्ध संपादक द्वारा
इस तरह से अपनी अप्रकाशित कविताओं बीच
छोड़ दिया जाता हूँ अकेला
अपनी प्रेमिका के लिए भी शायद
मैं उसका अस्थाई प्रेमी हूँ !
आखिर कौन एक अस्थाई व्यक्ति के साथ
अपने स्थायित्व को बाँटना चाहेगा?
मेरे पास स्थायी तौर पर सिर्फ़
पिता के कहे कुछ वाक्य हैं
जिनके सहारे अबतक अस्थाई होने के दुख
सबसे कठिन समय में काट रहा हूँ
मेरे पास स्थायी तौर पर मेरा अकेलापन है
मैं इस आधुनिक तेज़ समय में
सबसे पिछड़ा हुआ एक अस्थाई व्यक्ति हूँ ।
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