खोजना था हमें भी एक खज़ाना
हम तुम कितने जिओगे
आने वाली पीढ़ियों के लिए था इस धरा को बचाना
आओ करें बातें मिल- बैठ कर हम- तुम यार
कैसा हो चला है आज का और कल का संसार
ना किसी में सहनशीलता, और ना ही रहे वो
पुराने वालों की तरह सदाचार
आधुनिकता के जाल ने कर रक्खे हैं सभी बीमार
कुछ बातें विकास की कुछ बातें नवीन शोध की
कुछ बातें जनहित की कुछ बातें आत्मबोध की
हिंदी में कहते है शोध और अंग्रेजी में रिसर्च
बहुत ज्यादा हो रहा है इन सब पर खर्च
मांगें जाते हैं परियोजना के लिए आवेदन
बहुत होता है इनका प्रतिवेदन
शोध के बावजूद भी क्यूँ नहीं बन पाती कोई योजना
फिर क्यूँ बांटी जाती होगी परियोजना
ईमानदारी से करते हैं शोधार्थी काम
क्यूँ नहीं मिलता उनको उनके परिश्रम का इनाम
धरातल पर जब ठीके हो कदम हमारे
तभी बन पाते हैं कुटुंब के सितारे
कूदना पड़ता है शौक- लगन के समंदर में
कुछ हाथ नहीं लगता बैठे रहने से किनारे
असंख्य भांति- भांति के है शोध संस्थान
कोई अभी सीख ही रहे हैं शोध करना
तो किसी की है दुनियाभर में अपनी
अलग पहचान
चुप सा रहने लगा है शोध का का खानदान
कॉपी- पेस्ट की ही चली है आजकल दूकान
दो- तीन, तीन का एक जैसा काम
फिर भी शोध कार्य में नहीं है ख़ास रुझान
चारों तरफ हो आपके शोध कार्य और उससे मिलने वाले
लाभ की चर्चा
सिर्फ शोध पत्र लिखने तक का ना हो खर्चा
सही से हो ज्ञान का प्रचार- प्रसार
सही से हो समस्याओं का उपचार
डटे रहो शोध कार्य में मिलकर सभी
निदान मिलेगा समस्या से तभी
तपती गर्मी और ऊपर नीला आसमान
नयाँ शोध कार्य करना नहीं है आसान
दिन- दिन भर भटकना पड़ता है खोजी को
छानना पड़ता है हर कोना
बढ़ाना पड़ता है अपना ज्ञान
कुछ नयाँ और उपयोगी हो भावी पीढ़ी को
लगानी पड़ती है अपनी जान
स्वच्छता, वनस्पति,प्रदूषण, गरीबी, असमानता और ना जाने
किस- किस क्षेत्र में हुए हैं शोध हज़ार
फिर भी जंगल घट रहे हैं, प्रदूषण बढ़ रहा है साफ़- सुथरा नहीं हुआ स्थान
अब तो पूछने का हक़ बनता है किस- किस का
क्या- क्या रहा है समाज को नवीन देने में योगदान ?
हिमालय की जैवविविधता का विस्तार देखो
भूमि से लेकर जलीय जीवों का संसार देखो
विषैली हो रही हिमालय की भी हवा
बर्फ की चादर सिमट रही है
जलाया किसने हैं ठंड में तवा
ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जंगल बिक रहे हैं, पानी हो रहा है बर्बाद
मृदा को मार रहे हैं लालच के लिए, पैसों के लिए
डालकर उसमें हानिकारक खाद
पानी भी वैसा रहा नहीं जैसा दादी जी बताती थी मीठा, प्यास मिटाने वाला
खो चूका है ये भी अपना स्वाद
हम- तुम सब हैं इस धरा के दुश्मन
शहर बसाकर खत्म कर दिए उपवन
ना कहीं घास वो हरे- भरे मैदान
जिधर देखो उधर बस लालची इंसान
मशीनी युग आया, लगाई है बनाने की भरमार
क्या इससे निपटने का भी है कोई उपचार ?
हर घर में देखता हूँ तो पेड़ों के दुश्मन है दो- चार
किसी की कुल्हाड़ी तेज़ तो किसी का सांकल आर ( चैन सॉ )
किसी का घर छोटा तो किसी का बड़ा
आने वालों के लिए भी ये सुंदर जल, जंगल और ज़मीन बचे
कोई नहीं है लड़ने के लिए खड़ा
आखिर? किसके हाथ की हम कठपुतली है
किसके लिए ये इतना बनाना, कमाना है
छोडो इनसब को अपने लिए तो सांस ले लो पहले
तबाही वाला मंज़र घात लगाए खड़ा है
खामोश हो जाओगे एकदिन मौत के साथ देखा है कभी?
की पैसे वाला मौत से लड़ा है
आओ! मिलकर रहें और इस धरा को बचाएं
घर छोटे और वृक्ष जंगलों में अधिक लगाएं
ज़रूरी है घर भी सबके लिए उनके लिए भी
जो इन जंगलों, वनों, वृक्षों, नदी- तलाबों, सागरों
में रहते हैं, ये भी घर हैं किसी के, हम इन्हें क्यूँ उजाड़ रहे हैं
दे रहे हैं बेजुबानों को कितने कष्ट
देखना अपनी आँखों से
तुम्हारा- हमारा घर भी हो जाएगा एक दिन नष्ट
फिर से युवाओं में जोश भरना होगा
फिर किसी को निखरना होगा
खुद को आगे करना होगा
नवाचार के क्षेत्र में नवीन शोध आये
फिर किसी को खुद से लड़ना होगा
छोड़ दो ना खुद को औरों से आंकना
छोड़ दो ना किसी और के लिए झांकना
क्या छोड़कर जा रहे हैं आने वालों को
ये बंजर ज़मीन, पिघलते ग्लेशियर, सूखे नदी- नाले
दिखाई दे रहे हैं उमड़ते बदल वास्तविकता के काले
सम्भल जाओ ना धरा के बुद्धिजीवी प्राणी इंसान
क्यूँ ले रहा है धरा के प्राण
बहुत लम्बी है अभी शोध के क्षेत्र की लड़ाई
ज़रूरी नहीं की इसके लिए चाहिए वही पढ़ाई
मिले लाभ हरेक को इस धरा पर शोध कार्यों से
हो सबके लिए हितकारी और हो सबकी भलाई
पैट्रोल डीजल भी जले भुनें फिर रहे हैं भाई,
उनकी हल्की फुल्की नज़र न आने वाली
बहना गैस के उनसे ज्यादा दाम क्यूं है भाई??
न नहाती हैं न कभी अपना सड़ा मुखड़ा धोती है
फिर भी दुल्हे सिलेंडर कि गोद में सोते सोते
हर घर रसोई में अपनी धाक खुब जमाती है,
घर में आई नयी नवेली नखरेल बहू सी ये हुई
गैस सब घरवालों को नखरे हजार दिखाती है,
पफ पफ करके चुल्हे के बर्नर पर थिरकती,
कुकर कि हर सीटी पर नया नाच दिखाती है,
हाय रे बाग़ी ये निगोड़ी उर्वशी रंभा मेनका को
अपने लटके झटकों से एक पल में हराती है,
नयी नयी माडर्न मेम साहब ही हां ये पगली
सिलेंडर के पाइप में नागिन सी लहराती है।
शादी ब्याह हो या फिर हो कही पर भंडारा
लाल शेरवानी पहने अपने पति सिलेंडर संग
सबसे पहली पंगत में ये बैठी नज़र आती हैं।
देश की संसद से हर सत्ता सरकार तलक को
जनता की जी भर भर के गाली ये खिलवाती है।
बारह सौ का रेट करवा के अपने मोटे पति को
क्या खूब ब्लैक में धड़ाधड़ बेधड़क बिकवाती है।
हाय रे बाग़ी कुछ समाधान हो तो बता देना भाई
क्यूं जनता गली सड़े जानवर और पेड़ों की इस
गैस को पाने कि खातिर अपनी जान लड़ाते हैं
अरे छोड़ो इस बिमारी की आफत कि पुड़िया को
चलों सूर्य देव से सोर उर्जा लेकर हम सब मिलकर
दो वक़्त का पोष्टिक दाल भात पका कर खाते हैं।
एक लड़की जब गुजरती है
माहवारी की अवधि से
अनंत पीड़ाओं को सहती है!
अशेष कष्ट उठाकर भी
चेहरे पर शिकंज न लाती है!
विचलित मन से, वेदना भरे तन से
इस संसार की कुप्रथाओं को गले लगाती है!
शर्मा कर, सकुचा कर
बस इस कालावधि के खत्म होने की
आहें भरती रहती है!
जब एक लड़की गुजरती है
रजस्वला की अवधि से
वह उत्तरदायित्व की
पहली सीढ़ी चढ़ती है!
अपने जीवन के समस्याओं को समेटकर
उनका समाधान करना सीखती है!
जैसे रुधिर की प्रवाह को
एक छोटे से वस्त्र में समेटती है!
जीवन की मनोपीड़ा से लड़ने की
सामर्थ्य उसमें आती है!
जब एक लड़की
रजोधर्म अवधि से गुजरती है!
Written By Mili Kumari, Posted on 26.05.2023विदा की जाती है बेटियां
उन्हें भुलाया नहीं जाता।
बैठा डोली में दहेज दे
पराई किया नहीं जाता।
बेटों को हमेशा आगे रखा नहीं करते
बेटियों को पीछे किया नहीं जाता।
मेहंदी लगे हाथों से इतना काम करवाते नहीं
यूं घर का सारा बोझ डाला नहीं जाता।
लक्ष्मी है घर की बहू -बेटियां
लक्ष्मी को तड़पाया नहीं जाता।
परिवार- रिश्तों का देकर वास्ता
मायके से दूर रखा नहीं जाता।
मत आंको मिला मौका उड़ा देंगी जहाज
तितली को यूं पकड़ा नहीं जाता।
सबसे अलग बिठाया नहीं करते
देख बहू को ताले जड़ा नहीं जाता।
यूं दिनभर आंसू पिलाते नहीं
हंसा कर यूं रुलाया नहीं जाता।
Written By Seema Ranga, Posted on 06.06.2023चिटियों को भी भोजन की तलाश है
लाइन लगाकर चलती साथ-साथ है
बाधा उनको पहुँचाते हम सब ही तो वह इंसान हैं।
कभी दीवारों पर चढ़ती तो
कभी बिस्तरों पर है रेंगती
भोजन-पानी की तलाश में
भूखी-प्यासी,दिन-रात वह है तड़पती
आखिर वह भी तो नन्ही सी बेजुबान है।
फिर भी उसको मारने से
तनिक भी नहीं हिचकते
देखो हमसब ऐसे दुष्ट इंसान है।
फिर भी हमसब गर्व से कहते हैं
हमसब सच्चे और अच्छे इंसान है
क्या यही इंसानियत की पहचान है।
चिटियों को भी भोजन की तलाश है
लाइन लगाकर चलती साथ-साथ है
बाधा उनको पहुँचाते हम सब ही तो वह इंसान हैं।
दर्द सबको होती है
ये क्यों भूल जाते ये इंसान हैं
दूर उनको करते हैं
तब अपने परिवार से वे बिछड़ते हैं
फिर भी इनपर दया
क्यों नही करते ये इंसान हैं।
चिटियों को भी भोजन की तलाश है
लाइन लगाकर चलती साथ-साथ है
बाधा उनको पहुँचाते हम सब ही तो वह इंसान हैं।
कितना अजीब होता है न?
ये परिवार जिसमे हम सभी भाई बहन
एक साथ छोटे से बड़े होते है..
पर धीरे धीरे इतने बड़े हो जाते है,
की वो एक साथ हंसते खेलते भाई बहन
एक दूसरे से जुदा होने लगते हैं.
बड़े भाई की नौकरी लग जाती है
बड़ी बहन की सादी हो जाती है,
और कब हम एक दूसरे से जुदा हो जाते है
पता ही नही चलता.
हमारी बहना जीवन की रीत को निभाने के लिए
अपने आसुओं को छुपाते हुए,
बाबुल का आंगन को छोड़कर
अपने पति का आंगन मैं खुशियां बिखेरने चली जाती हैं।
जो भाई अपने घर को एक पल के लिए नही छोड़ सकता
वो भाई अपने जिमेदारियो को निभाने के लिए
घर से दूर नौकरी पर चले जाते हैं।
पर हमारे रिश्तों मैं हमेशा मिठास होता हैं.
वो बचपन वाला प्यार हमेशा होता हैं।
जो दूर रहते हुए भी हमें अपनों से जोड़े रखता हैं।
कलमकारों ने रचना को स्वरचित एवं मौलिक बताते हुए इसे स्वयं पोस्ट किया है। इस पोस्ट में रचनाकार ने अपने व्यक्तिगत विचार प्रकट किए हैं। पोस्ट में पाई गई चूक या त्रुटियों के लिए 'हिन्दी बोल इंडिया' किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं है। इस रचना को कॉपी कर अन्य जगह पर उपयोग करने से पहले कलमकार की अनुमति अवश्य लें।