कमाल है, आज हर ``झूठा`` इंसान
``सच्चे`` प्यार की तलाश में है
प्रेम नहीं है खुद के भीतर
पर दुसरों से असीम मिले
हर कोई इसी आस में है
कोई, किसी के पीछे
जिसके पीछे वो,
वो किसी और के पीछे
यही भागम-भाग लगा हुआ है
पर असल में प्रेम नहीं
किसी के पास में हैं
प्रेम वह दर्पण हैं-
जिसमे खुद का अक्स दिखायी देता है
सैकड़ों आईने में चेहरा नहीं बदलता साहब
सुकून हासिल करने में नहीं
सिर्फ प्रेम के एहसास में हैं
थोपा नहीं जाना चाहिए
जबरन किसी पर
खुद की चाहतों को,
प्रेम तो केवल स्वतंत्रता के विश्वास में है
प्रेम बंधन नहीं, बंधन से मुक्ति हैं
पर अफसोस! यहां हर कोई
अंकुश लगाने के विफल प्रयास में हैं
हैं गर प्रेम खुद के भीतर
फिर न दो किसी और को रुलाने की इजाज़त
करो प्रेम स्वयं से, तथा आत्मबल से
अपने मनःस्थिति की हिफाजत
नहीं, हर कोई भावनाओ से
खेलकर जाने की फिराक में है
न करो किसी पर इतना ऐतबार
प्रेम के बदले होते हैं यहां
पैतीस टुकडे, और
चाकुओं, पत्थरों से अनगिनत वार
फिर भी भोला भाला इंसान,
इस झूठी दुनिया से
सच्चा प्रेम मिलने की कयास में हैं
Written By Rashmi Pandey, Posted on 13.06.2023टेढ़े- मेढ़े रास्तों से होकर
ले हल और बैल किसान आया है।
बंजर जमीं पर करने कठोर परिश्रम
लाने धरा की हरियाली आया है।
चिलचिलाती धूप है चारों तरफ
गर्मी की परवाह किए बिना आया है।
मेहनत करके उगाता अन्नदाता अन्न
भरने पेट जगत का ये आया है।
पाल पशुओं को देता दूध हमें
पक्षियों का सच्चा साथी आया है।
ठिठुरती ठंड में सो रहा जगत सारा
लहराती फसल संभालने आया है।
बिजली चमके, बादल गरजे अंबर में
बिन डरे, बिन रुके पानी देने आया है।
देख प्राकृतिक आपदा बेचारा रोया है
उठ फिर से, अन्न उगाने आया है।
मेले, फटे- पुराने कपड़े पहन कर
किसान फसल कटाई करने आया है।
देख कठोर तप को इनके जगत
जय किसान का नारा लगाने आया है।
जय जवान जय किसान
धरती माता पूछे भारत से
कैसे ये, कैसे हुआ
भूल रहे अपनी संस्कृति
कैसे ये, कैसे हुआ।
भारत रोए फिर बोले
चलो इक गाथा सुनाऊं
नज़र लगी अंग्रेजों की ऐसी
अब उसका भुगतान पाऊं ....
धरती माता पूछे भारत से
कैसे ये, कैसे हुआ
भूल रहे अपनी संस्कृति
कैसे ये, कैसे हुआ।
भाई भाई में फूट डालकर
मैं बड़ा मैं बड़ा अभिमान हुआ
रिश्तों की कोई कदर रही ना
सीधा हृदय पर वार हुआ.....
धरती माता पूछे भारत से
कैसे ये, कैसे हुआ
भूल रहे अपनी संस्कृति
कैसे ये, कैसे हुआ।
अपनी बोली भूल कर के
अंग्रेज़ी में गिट पिट कर रहे
अम्मा बाबा थे जो कभी अब
मॉम डैड कहलाए
दीदी भईया थे जो कभी
वो भी सिस्टा ब्रो बन गए.....
धरती माता पूछे भारत से
कैसे ये, कैसे हुआ
भूल रहे अपनी संस्कृति
कैसे ये, कैसे हुआ
मैं अनुरागिनी...
मोती जैसे शब्दों की!
जिसे एक- एक कर पिरोती हूं
अपनी कविता में!
मैं अनुरागिनी...
शब्दों में छिपी भावनाओं की!
जिसे स्पर्श कर...
संजोती हूं चित्त के हरेक कोने में!
मैं अनुरागिनी इस स्नेह की
जो सर्वस्व स्थानों से मिलकर
समाहित होते है मेरे हृदय में!
मैं अनुरागिनी मीठी वाणी की
जिसे सुन लुप्त हो जाती हूं
एक पृथक संसार में!
मैं अनुरागिनी सकारात्मक स्पंदन की
जिसे छूकर खो जाती हूं
एक रंगमयी लोक में!
मैं अनुरागिनी अपनी छाया की
जिसे देख अनुभूति होती है
अपने अस्तित्व की!
मैं अनुरागिनी स्वयं की
बिना झिझक खोई रहती हूं
अपने स्वप्नों में!
मैं अनुरागिनी स्वयं की
जिसमें अंकन स्वत: की!
मैं अनुरागिनी स्वयं की !!
Written By Mili Kumari, Posted on 22.05.2023
हुआ जो हादसा देखा न जाये
बिखरता क़ाफ़िला देखा न जाये
बुलन्दी पर खड़ा जो आज उसका
सिमटता दायरा देखा न जाये
मुहब्बत में मज़ा आता तभी है
कोई भी फ़ायदा देखा न जाये
तुम्हें देखा तुम्हारे बाद में अब
कोई भी दूसरा देखा न जाये
पहुँचता ये नहीं मंज़िल पे यारो
यही इक रास्ता देखा न जाये
दिखाता ही नहींं ये सच किसी को
ये मैला आईना देखा न जाये
कभी मेरी नज़र से मेरे मौला
सदाक़त के सिवा देखा न जाये
कमी `आनन्द` में बेशक़ यही है
उलटता क़ायदा देखा न जाये
Written By Anand Kishore, Posted on 22.05.2021
रोटी की तलाश में शहर गए लोगों लौट के आना गाँव भी। गाँवों को अकेला छोड़ के वहीं बस मत जाना। न आ सको ऐसे तो होली, दशहरा, दिवाली के बहाने आना, पर आते रहना। ये ना सोचना कि क्या रखा है गाँव में या वहाँ कौन इंतज़ार कर रहा है ? ये गालियाँ-पगडंडियाँ, खेत-खलिहान, आँगन-दालान हर रोज़ तुम्हारी राह देखते हैं। सुने पड़े नुक्कड़ों को फिर से जगमग करना, एक बार गाँव को ज़रूर लौटना।
ट्रेन में बैठ कर जब शहरों की ओर बढ़ते होगे तो पीछे छूटता गाँव याद तो आता होगा या शहर में जब कभी मन उदास होता होगा तो सोचते तो होगे कि लौट चलें गाँव? जब भी मन अटके तो बेहिचक लौट आना। वीरान पड़े गाँव में फिर से रौनक़ जगाना और हो सके तो यही कोई उद्दम लगाना।
Written By Shashidhar Chaubey, Posted on 28.06.2023मैं जब भी रब से सवालात करता हूं,
खामखां जज़्बातों पर आघात करता हूं।
इश्क उसका झूठ का इक पुलिंदा हां था,
मैं इसी ज़माने की सच्ची बात करता हूं।
तोता मैना सी वफ़ा की उम्मीद मत करना,
सब फरेब ये ऐलान दावे के साथ करता हूं।
हर बार हाथ धोइए हाथ मिलाने के बाद,
धोखे से बचोगे,बयां खरा जज़्बात करता हूं।
करीब रह के कोई मात देगा भी तो कैसे?
मैं `बाग़ी` गद्दारों पे पुरजोर आघात करता हूं।
उसकी हर बात पर मुझे ऐतबार हो रहा है
जाने अनजाने में मुझे उससे प्यार हो रहा है...
खुदा जाने क्या जादू कर गई वो
हर पल मेरी आंखों को सिर्फ
उसी का इंतजार हो रहा है....
गम की ना परवाह है
ना खुशी से कोई वास्ता रहा
बस उसकी मुस्कान देखकर
आवाज मेरा संसार हो रहा है.....
करार आता नहीं खुद के ही मकान में
उसके कदमों को
चूम कर ही नींद आती है
लगता है उसके कदमों तले
मेरा घर बार हो रहा है.....
दिल उसके नाम से धड़कता है
सांस भी उसी के नाम से आती है
मेरा जिस्म उसी पर निसार हो रहा है.....
एक दिन लगाया था
उसने मेरे जख्मों पर मरहम
तभी से मेरा दिल
बीमार हो रहा है.....
जल्दी से दुल्हन बन कर
मेरे घर आ जाओ
तुम्हें अपना बनाने के लिए
मेरा जी बेकरार हो रहा है....
कलमकारों ने रचना को स्वरचित एवं मौलिक बताते हुए इसे स्वयं पोस्ट किया है। इस पोस्ट में रचनाकार ने अपने व्यक्तिगत विचार प्रकट किए हैं। पोस्ट में पाई गई चूक या त्रुटियों के लिए 'हिन्दी बोल इंडिया' किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं है। इस रचना को कॉपी कर अन्य जगह पर उपयोग करने से पहले कलमकार की अनुमति अवश्य लें।