इतने बड़े संसार में
जहाँ निराशा का अँधेरा अपने यौवन पर हो
वहाँ उम्मीद की एक छोटी सी किरण
की भी अहमियत होती है
जैसे
किसी कोरे काले काग़ज़ पर
यदि एक भी सफेद बिन्दु हो
तो वही बन जाता है
मनुष्य की आशाओं का दर्पण
समस्त इच्छाओं के उज्जवल प्रतिबिम्ब के लिए
समझना है
मरने से बेहतर है जीना
और जीने के लिए
रेत के घरोंदे भी कम महत्वपूर्ण नहीं होते
तब हम कुत्सित वासना को ही
क्यों प्रमुखता दें
इन्सानियत को समझें
छोटे से इन्सान के विकसित मस्तिष्क को जानें
अपेक्षा उम्र से की जाती है कि
सभी अनुभवों को प्रयोग करना
और निकलता है क्या परिणाम
ये जानना
कोई अप्रायोगित अनुभव भी ला सकता है
विचारात्मक आन्दोलन
लेकिन
दर्द और पीड़ा से दूर
जहाँ एक क्षितिज है दोस्ती का, प्यार का
वफ़ा का, विश्वास का
यह मन की आँखों से साफ
दिखाई दे जाता है
महसूस कर लिया जाता है
परन्तु
घृणित वासना के आते ही
क्षितिज ग़ायब हो जाता है
सभी कुछ बनावटी सा लगने लगता है
हँसी-ख़ुशी, कस्मे-वादे,
गिले-शिकवे, नेक इरादे
एक सच ही सामने होता है
और वो है धोखा।
Written By Anand Kishore, Posted on 21.05.2021
तुम्हारी याद को
ले आती है,
हर शाम
जब कुछ गहरा जाती है।
मैं अकेला
दूर परिधि पर,
एक अकेली रेखा-सा
खड़ा रह जाता हूँ।
बढ़ना चाहता हूँ,
केंद्र की ओर
पर परिधि अपनी
और खींचती रहती है।
उस गर्म एहसास को
भुल जाना, ठीक
अपने को भूल
जाने जैसा ही है।
जैसे बादल ने
घेरा हो चाँद को
तुम्हारी वो रंगत
मुझे आकर्षित
और बेईमान
करती रहती है।
सच-सच कहूँ तो
ओस की बूंदों की तरह
चमकती तुम्हारी आँखें
``मन`` को सुकून देती हैं।
धुंध भरी अदृश्य सड़कें,
चर्र-चूं का यांत्रिक स्वर,
बनते-बिगड़ते उसके अक्स,
ट्रीं-ट्रीं टुन-टुन बजते स्वर.
भूत की तरह गतिमान,
उस अक्स का रहबर,
जाने इन सड़कों-गलियों,
का ये परिचित अनुचर.
धारित अधूरे-पुराने वस्त्र,
निश्छल मार्ग पर ले तरंग
गुण्डे मवाली से बेपरवाह,
ठंढा-वर्षा से अमर्त्य जंग.
ठिठुरा तन हुआ ऊर्जस्वित,
गरम चाय की प्याली से.
मन की उर्जा भरी उड़ान,
ख्वाबों की फूली लाली से
सारी खुशियां रख ताक पर
पेट हुआ अब मुख्य लक्ष्य
मृत इच्छाओं को दे आयाम
अपनी विधा में हुआ दक्ष।
पौ फटते बालकॉनी में नज़र,
धुंधलके का पसरा था कहर.
झट दरवाजा बंद,आया अंदर,
तभी उछला अखबार ऊपर.
मैं अनभिज्ञ हूँ
कब, कहाँ किस परिस्थिति में
मेरी कविता का जन्म होगा।
मैं अनभिज्ञ हूँ
वो सूर्य उदय होगा
या सूर्यास्त होगा
वो पल खुशी का होगा
या दुख का होगा
जब मेरी कविता का जन्म होगा।
मैं अनभिज्ञ हूँ
मेरे लेखनी उठाने से
उसका जन्म होगा
या कोई मुहूर्त में
वो कागज पे उतरेगी
या किस्तो में कई पन्ने
कचरे दान में डालकर
उसका मुल स्वरूप पूरा होगा।
मैं अनभिज्ञ हूँ
मेरी कविता रोते हुए आएगी
या मुस्कुराते हुए आएगी।
कविता के जन्म के उपरांत
वह लोगों को हंसाएगी
या रुलाएगी,या सोये हुए को जगायगी
या कोई क्रांति लायेगी।
मैं अनभिज्ञ हूँ
मेरी कविता के कारण
कब में आलोचना का
शिकार बन जाऊंगा
कब लोगो की नज़रों में
खटकने लगूँगा।
कब मेरी कविता से लोगो मे
बदलाव आ पायेगा।
मैं अनभिज्ञ हूँ
Written By Kamal Rathore, Posted on 07.01.2022इस दुनिया में कोई रोया,
क्यों पीर सभी की एक—सी,
क्यों दर्द सभी का एक—सा…..
प्यार में टूटा दिल किसी का
क्यों हीर सभी की एक—सी,
क्यों दर्द सभी का एक—सा…..
भाग मेरा हाय रे फूटा
तू जो रूठा, रब रूठा
कोई मुझे न और प्यारा,
साथ तेरा हाय रे छूटा
खोया जिसने भी साथी,
तक़दीर सभी की एक—सी
क्यों दर्द सभी का एक—सा…..
मुझको खुदसे यार गिला
साथ मिला ना प्यार मिला
है रब से यही शिकायत,
जीवन क्यों बेकार मिला
चोट लगी अश्क़ बहाये,
क्यों पीर सभी की एक—सी,
क्यों दर्द सभी का एक—सा…..
मजनू को लैला न मिली
और फरहाद को शीरी
कहते कहते क्यों डूबे,
वो महिवाल, वो सोहनी
क्यों राँझा जोगी बना है,
क्यों हीर सभी की एक—सी,
क्यों दर्द सभी का एक—सा…..
कोई बांट रहा फ्री की बिजली
फ्री स्कूटी बेटियों को कोई दिला रहा है
चौबीस घंटे पानी दे रहा कोई
कोई निशुल्क लैपटॉप के सपने दिखा रहा है
बुजुर्गों ने जो कमाया जैसे उसको लुटा रहा है
ऐसा लग रहा है जैसे चुनाव नजदीक आ रहा है
एक दूसरे पर चल रहे कटु शब्दों के बाण
कहीं सीबीआई ईडी का चल रहा डंडा
असली मुद्दों को भूल चुके हैं सारे
सत्ता को हड़पने का यह है नया फंडा
सत्ता से बेदखल होने का डर सता रहा है
ऐसा लग रहा है जैसे चुनाव नजदीक आ रहा है
महंगाई बेरोजगारी अब बीती बातें हो गई
इन पर नहीं अब किसी का ध्यान
खुद कर रहे रैलियों में भीड़ इक्कठी
दूसरों को बांट रहे फालतू का ज्ञान
कानून की धज्जियां कानून का रखवाला उड़ा रहा है
ऐसा लग रहा है जैसे चुनाव नजदीक आ रहा है
इतर वालों की खुशबू सीबीआई ले गई
नोट जो निकले थे किसके यह पहेली रह गई
चुनाव जब आते हैं तभी पड़ते हैं छापे
यू पी नहीं यह बंगाल की जनता कह गई
जनता को फिर झूठे सपने दिखा रहा है
ऐसा लग रहा है जैसे चुनाव नजदीक आ रहा है
राजनीति को घटिया बना दिया इन नेताओं ने
आदर्शों और संस्कारों को दे दी तिलांजलि
सत्ता का सुख भोगने के लिए
आदर्श और ईमानदारी की दे दी बली
सच्चाई को झूठ से कोई दबा रहा है
ऐसा लग रहा है जैसे चुनाव नजदीक आ रहा है
कोई अपनी जाति की दुहाई दे रहा
कोई मज़हब के नाम पर लड़ा रहा
साजिशें हो रही देश बांटने की हर तरफ
अपने स्वार्थ की खातिर देश की बलि चढ़ा रहा
भाईचारे के बीच में मज़हब क्यों लाया जा रहा
ऐसा लग रहा है जैसे चुनाव नजदीक आ रहा है
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