कार्पोरेट में जगत में कर्मचारी के ऊपर इतना काम थोप दिया जाता है की जैसे वह इंसान नहीं गधा है। हर आदमी कार्य के इतने दबाव में रहता है कि स्वयं का व्यक्तिगत जीवन भूल जाता है या कहें कि स्वयं के लिए समय नहीं दे पाता। जब वह स्वयं के लिए समय नहीं दे पाता तो सोचिए परिवार को क्या समय दे पायेगा। कार्य का इतना अधिक दबाव की इंसान हमेशा तनाव में रहता है। और यह हाल लगभग हर उस इंसान की है जो प्राइवेट कर्मचारी है।
यहाँ पर आपके व्यक्तिगत जीवन से किसी को लेना देना नहीं है। आपके ऊपर कार्य का कितना दबाव है जिसके चलते आप तनावपूर्ण जीवन जीने को मजबूर हैं उससे भी किसी को कोई लेना देना नहीं है। बस एक ही लक्ष्य दिया जाता है कि काम को किसी भी तरह दिये गये समय सीमा के अंदर समाप्त करो। कैसे करना है यह आपको देखना है, इससे भी किसी को कोई लेना देना नहीं है। आपसे जबरन तथा चिल्लाकर काम करवाया जाता है। एक काम अभी समाप्त नहीं हुआ है दूसरा थोप दिया जाता है।
सबसे हास्यास्पद बात यह है कि इतना सब कुछ करने के बाद भी कई बार यह कहा जाता है कि आप करते ही क्या हो। या आपने किया ही क्या है। यह तो ठीक वैसी ही है जैसे कोई कृतघ्न पुत्र अपने बाप से कहता है कि आपने हमारे लिए किया ही क्या है। वह अपने बाप के हर उस त्याग को भूल जाता है जो उसने अपने बेटे के लिए किया है। बदलाव की सख्त जरूरत है नहीं तो आने वाली नस्लों का जीवन और भी तनावग्रस्त होगा।
मैं काम चोरों के समर्थ में कदापि नहीं हूँ, लेकिन जो काम कर रहे हैं उनके काम का अवलोकन होना चाहिए। उनके ऊपर क्षमता से अधिक कार्य का भार तो नहीं डालना चाहिए। कंपनी को फायदा पहुँचाना अच्छी बात है। लेकिन साथ में ये भी ध्यान देने योग्य बात है कि कहीं उस फायदे के चक्कर में कर्मचारी के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ तो नहीं हो रहा है। याद रखिए कर्मचारी की देखभाल के साथ साथ उसके शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल होनी चाहिए। कंपनी में कार्यरत ह्यूमन रिसोर्स को यह देखना चाहिए कि किसी कर्मचारी के साथ कोई भेद-भाव या उनका किसी प्रकार का शोषण तो नहीं हो रहा है।
आज बीसवीं सदी में तरक्की के नाम पर हम बहुत आगे बढ़ गये हैं। इतने आगे बढ़ गये की अपने पीछे छूटे जा रहें है। उसकी वजह भी कार्पोरेट कल्चर है। किसी को समय नहीं है कि अपने रिश्ते और संबंधो को थोड़ा समय देकर उसको और मजबूत करे। आफिस के तनावयुक्त कार्य से जब किसी को फुर्सत मिलेगी तब तो कोई अपने व अपनों के लिए समय निकालेगा। समय अभाव के कारण रिश्ते और संबंधो से हम दूर होते जा रहें हैं। पारिवारिक संबंधो का दायरा सिमटता जा है। पारिवार को समय न देने के कारण आपसी कलह तथा लोगों में चिड़चिड़ापन आम बात हो गई है। यह हमारे और समाज के लिए ठीक संकेत नहीं है। इस विषय को गंभीरता लेकर इसमें सुधार की अत्यंत आवश्यकता है। ऐसा हुआ तो युवाओं में तनाव कम हो जायेगा।
पारिवारिक संबंधो के साथ जीने वाले व्यक्ति का तनाव अपने आप कम हो जाता है। एक मधुर संबंध स्थापित करने के लिए आपको समय देना पड़ता है जो आजकल लगभग किसी भी कार्पोरेट कर्मचारी के पास नहीं है। आज से 15-20 बर्ष पीछे मुड़कर देखिए फिर आप स्वयं अनुमान लगाइए कि हमने अपने आप को कितना समेट लिया है। हमारे संबंधो की सीमा कितनी सिकुड़ती जा रही है। शहरों का व्यस्त जीवन आदमी के जीने का तरीका ही छीन लिया है। आदमी मजबूरन कितना एकीकृत होते जा रहा है। हालाकि कुछ लोग जानबूझकर भी कर स्वयं को एकीकृत किये हुए हैं। ऐसे लोग स्वयं को घर परिवार समाज से दूर किये रहते हैं।
इतना सब कुछ झेलने के बावजूद गलती से कभी छुट्टी मांग लिए तो बाॅस ऐसे देखता है जैसे छुट्टी नहीं उसका कलेजा मांग रहे हो।हद है यार ! मतलब आप मशीन की तरह काम करते रहो, यहाँ आपके भावनाओं और व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर किसी को फर्क पड़ता है तो केवल आपके परिवार को। इसलिए अपने रोजमर्रा के जीवन से समय निकाल कर परिवार को यथासंभव समय दीजिए।
Written By Amit Kumar Mishra, Posted on 08.06.2023शीत के वसंत वो,
हवा के ठंडक जो,
ओंसो का चादर हो,
शीतों का बारीश करें।
शीतों के हवा के झोके,
कन-कनाक के महसूस हो।
पानी पीये जो,
झन-झनाक कर लगे।
फूलों के बगीचे में,
धूपों की कलियाँ खिले जब।
आराम कर अनंद ले,
राम का नाम ले।
बार बार दिखा अपना दम, क्यूँ इतराता है
दो क्षण नहीं लगता, और तू मिट्टी हो जाता है |
दिखा अपना रौद्र रूप, एहसास दिलाने आई
हो ने गुमान अहम पर तेरी कीमत है दो पाई |
बीज, पौध, पेड़, फल, यही प्रकृति का जीवन चक्र
समझा यदि क्यूँ हुआ जन्म, तब होगा जीवन पर फक्र |
Written By Yogendra Kumar Vishwakarma, Posted on 12.06.2023हम सच के कदमों पर सफ़र किया करते हैं,
झूठ को अपनी एडी तले मसल दिया करते हैं।
कोई दोस्त हैं के दुश्मनी के रंग में रंगा हुआ,
गिरगिटो के दांत हम ख़ुद गिन लिया करते हैं।
नमक गैरों की रोटी में डला खाना छोड़ दिया,
आंसू घूंट दो घूंट हम अपने ही पिया करतें हैं।
छोड़ दो इश्क में यूं नजरें मिलाना झुकाना,
रोग ये रात में फिर दर्दे गम दिया करते हैं।
``बाग़ी``कहता ज़रा कान लगाकर सुनो यारों,
हम वफादारी में जान भी लुटा दिया करते हैं।
झरना कल-कल
करता रहता,
जैसे किसी को अपनी ओर बुलाता,
दिन-भर बहता ,
फिर शाम को शांत हो जाता।
हमें वो शिक्षा देता,
अपनी शीतलता का एहसास कराता,
मगन अपनी मस्ती में ही रहता ,
और पक्षियों के मन में उमंग जगाता।
झरना कल-कल
करता रहता,
स्वछता और शीतलता का प्रतीक है यह,
कल-कल करता बहता रहता
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