जब संतानों का नाम
ही बन जाएं पहचान,
सबका केंद्रित हो ध्यान
लोगों में हो गुणगान.
इससे बड़ा न कोई धन
और न कोई हो सम्मान.
समाज में बड़ा योगदान
कार्यधर्म ही बना प्रधान,
जीवन वृत्त बना सेवाक्रम
जब घर बना लोकाश्रम.
इससे बड़ा न कोई धन
और न कोई हो सम्मान.
अवतरण सार्थकता की
समझ ही सच्ची मानवता,
धरा और मानव के प्रति
ऐसी संस्कृति का हो दान.
इससे बड़ा न कोई धन
और न कोई हो सम्मान.
सेवाधर्म की जागी राग
मिटेंगे मन के सारे दाग
दुर्गुणों को दोगे त्याग
अंतर में जगाओ आन.
इससे बड़ा न कोई धन
और न कोई हो सम्मान.
त्याग,अनुराग जगा कर
जीवन को साकार करो
विचलित मानवता जागेगी
तभी मिलेगा उसको त्राण
इससे बड़ा न कोई धन
और न कोई हो सम्मान.
पिता जिनके राणाउदय सिंह,
और दादो सा राणा सांगा थें।
जयवन्ता बाई माता जिनकी,
प्रताप महाराणा कहलाऍं थें।।
शिष्टता, दृढ़ता एवम् वीरता,
जिसकी प्रताप ये मिसाल थें।
मुगलके ख़िलाफ़ लड़नें वालें,
एक अकेले बहादूर योद्घा थें।।
अपनों के प्रेमी एवं देश प्रेमी,
आज़ादी अलख जगाने वालें।
जीवन अंत तक संघर्ष करना,
ना आत्मसमर्पण करनें वालें।।
महारानी अजबदे के भरतार,
मिलकर वो भीलों के सरदार।
रचें अनेंक क़िस्से व इतिहास,
प्रताप बनें सभी के मददगार।।
विरोधियों का सामना किया,
हल्दी घाटी मैदान साक्षी रहा।
कई राजपूत इनके शत्रु हुऍं,
पर मेवाड़ राज्य स्वतन्त्र रहा।।
अकबर के पास अपार सैना,
लेकिन युद्ध से प्रताप डरें ना।
साथ रहा चेतक इनके घोड़ा,
महाराणा से डरी मुगल सेना।।
क़िस्से कहानी के किरदार हुऍं,
सुपुत्र अमरसिंह बलवान हुऍं।
जन्में प्रताप दुर्गकुम्भलगढ़ में,
09 मई 1540 भारत वर्ष में।।
जीवन में किऍं अनेंक यें युद्ध,
मिला न उन्हें कभी कोई सुख।
घायल भी अनेकों बार यें हुऍं,
देशप्रेमी प्राण न्यौछावर किऍं।।
बकरे की माता भला, कब तक माॅंगे खैर।
हम हैं बकरा, ईद के, कट जाते बिन बैर।।
कब कट जायें क्या पता, सबसे मीठा बोल।
हम हैं बकरा, ईद के, नहीं हमारा मोल।।
खाते हैं वो चाव से, सब उधेड़कर खाल।
हम हैं बकरा, ईद के, करके हमें हलाल।।
धर्म जाति के नाम पर, ले लेते हैं जान।
हम हैं बकरा, ईद के, हो जाते कुर्बान।।
सभी तरफ से घेरकर, करते काम तमाम।
हम हैं बकरा, ईद के, मजहब के गुमनाम।।
नहीं जानना चाहते, आम जनों की पीर।
हम हैं बकरा, ईद के, कट जाना तकदीर।।
कभी व्यवस्था डस रही, कभी डसे सरकार।
हम हैं बकरा, ईद के, झेलें सबकी मार।।
मीठी बातों में फॅंसा, सब दे जाते घाव।
हम हैं बकरा, ईद के, खाते हैं सब चाव।।
हमें चुनावी वक्त में, खूब बनाते बाप।
हम हैं बकरा, ईद के, लेते गर्दन नाप।।
मानवी बहुत दिनों से इस वृद्धाश्रम में एक कोने में चुपचाप बैठी एक महिला को देखती थी वह सारे समय ऊन सलाई से थोड़ा बुनती और फिर उधेड़ देती । ना वह किसी से बोलती थी ना किसी की ओर नजर उठा कर देखती थी । कभी कभी बस बड़बड़ाती रहती कितना भी सुलझाऊं सब उलझ ही जाते हैं ।
मानवी एक सोशल बर्कर थी साथ में वह रिसर्च भी कर रही थी "महिलाओं की मनोस्थिती " । मानवी ने आश्रम की प्रबन्धक से पूछा तब सारी बात पता चली । इन महिला का नाम सविता था । पति का नाम घनश्याम जी था । बहुत धनवान परिवार था । घनश्याम जी के तीन छोटे भाई थे । संयुक्त परिवार था । घनश्याम जी ने सबको एक सूत्र में बांध रखा था जैसे एक माला में मोती । यह वृद्धाश्रम भी उन्ही के द्वारा निर्मित था जिससे बेसहारा महिलाओं को छत मिल सके । सविता जी बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी । सर्व सुख होने के बाद भी जीवन में एक रिक्तता थी संतान ना होना । घनश्याम जी और सविता जी तीनों छोटे भाईयों के बच्चो को अपनी जान से अधिक प्यार करते थे । तीनों छोट भाई भी आपस में कोई भी काम घनश्याम जी और एक दूसरे की सलाह के बिना नहीं करते थे । बस उन तीनों भाईयों की पत्नियों की आपस में बहुत कटुता थी वह केवल घनश्याम जी से डरती थी। आये दिन सविता को भी कटु शब्द कहने से नहीं चूकती थी ।
सविता किसी बात को तूल नहीं देती ना वह चाहती थी कि कोई बात घनश्याम जी तक पहुंचे । सब सही चल रहा था अचानक घनश्याम जी को हार्ट अटैक आया और वह परलोक सिधार गये । उनके जाते ही भाईयों के सुर भी बदलने लगे आये दिन घर में कलह होने लगी । उसने बहुत संभालने की कोशिश की पर उसे दुत्कारा गया । आखिर में तीनों ने सब कुछ हथिया लिया उसे घर से निकाल दिया । सविता जी को इतना मानसिक आघात पहुँचा की वह विक्षिप्त अवस्था में इधर उधर भटकने लगी । एक दिन आश्रम की संचालिका ने उनको इस हालत में देखा वह उन्हें आश्रम ले आई । सविता चुपचाप बैठी रहती एक दिन कोई महिला स्वेटर बुन रही थी । सविता जी ने वह उसके हाथ से छीन ली । प्रबन्धिका ने तुरन्त दो सलाई और ऊन लाकर उन्हें देदी बस अब वह बार बार फन्दे डालती और उधेड़ देती और कहती रहती हमेशा यह रिश्ते उलझते सुलझते रहते हैं।
Written By Madhu Andhiwal, Posted on 13.06.2023दुनिया में हैं हज़ारों रंग,
हर शख्स किसी न किसी के
रंग में है मगन,
हर किसी के दिल में है उमंग,
दिल की डोर के साथ हर कोई
बन गया आज है पतंग..।
आसमानों में है पक्षी उड़ते,
दिन भर है मस्ती करते,
शाम को सब अपने अपने
घोंसलों में जा मिलते,
देखकर दाना फिर उनके
बच्चों के चहरे खिलते..।
दुनिया में हैं हज़ारों रंग,
हर शख्स किसी न किसी के
रंग में है मगन...।
तेरे होंठो पर कभी आयी थी, वो फ़रियाद हूँ मैं
तेरे बीते हुए दिनों की एक याद हूँ मैं l
तुमने जो तन्हाई में लिखा था, वो गीत हूँ मैं
दुश्मन ना समझ मुझे अपना, तेरा मीत हूँ मैं l
एक मुसाफिर है तू , तेरा सफर हूँ मैं
तन्हा नहीं है तू तेरा हमसफर हूँ मैं l
दूर रह कर भी तुमसे, तेरे करीब हूँ मैं
तू अपना बना ले तेरा नसीब हूँ मैं l
जहन में अपने उतार मुझे, एक एहसास हूँ मैं
तेरी सासें बनकर हरदम तेरे पास हूँ मैं l
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