हल्के सामाजिक रिश्तों की वज़्नी मर्यादाएँ
सदियों से चलती आ रहीं
परम्पराओं के अटूट बन्धन
खोखली रीतियों और बेकार की रस्मों के असीमित दायरे
अर्थहीन रिवाजों के सुदृढ़ घेरे
मानव के आक्रोशित मस्तिष्क की व्याकुलता पर
स्वछन्द मनन-चिन्तन पर
लगा देते हैं एक प्रश्न-चिन्ह
तब अपने चारों ओर महसूस होती है किसी
कमज़ोर पिंजरे की मज़बूत परिधि
क्योंकि
नादान समझ लिया जाता है
हमारे परिपक्व व्यक्तित्व को
नकारा जाता है हमारे छोटे से अस्तित्व को
सीमाएं जितनी अच्छी हैं
घेरे उतने ही घिनौने
पंख बहुत सुन्दर दिये हैं परन्तु
पहरे उतने ही कठोर
सिसकते हैं, छटपटाते हैं
फट पड़ने को
आज़ाद होने को जी चाहता है
यही मनन
हमें दे सकता है एक सार्थक दिशा
यही चिन्तन
जवाब होता है हमारी मौन तृष्णा का
हमारे उस प्रश्न-चिन्ह का
जो बना हुआ है
एक कमज़ोर पिंजरे की मज़बूत परिधि।
Written By Anand Kishore, Posted on 19.05.2021
चिकनी चुपड़ी बातो से फिसल मत जाना
तेरी उम्र है डूबने की, डूब मत जाना।
बातों ही बातों में लोग चाँद तारे तोडेंगे
तुम अपना आसमान भूल मत जाना।
हर पल दूर के ढोल लुभाएंगे तुमको
लक्ष्मण रेखा के तुम पार मत जाना।
तेरे सपनो पे ही, अपनो को मान होगा
अपने सपनो से तुम दूर मत जाना।
अगर ज़िद है तुम्हे दुनिया जीतने की तो
शहर की चकाचौंध में गुम मत जाना।
कभी जून की गर्मी कभी दिसंबर की ठंड
हर वर्ष ऐसे ही आता है नया साल
कहीं खुशियों का डेरा कहीं गम ने है घेरा
कहीं शांति है छाई कहीं मचा है बबाल
कभी पतझड़ है आता कभी आती है बहार
कभी बरसते मेघ कभी गर्मी से हाहाकार
दिसंबर की सर्दी में जम जाता तन बदन
यह सब कुछ ही तो होता है हर बार
कुछ अच्छा करने का संकल्प दोहराते हैं
लेकिन फिर उसी रास्ते पर चलते जाते हैं
दिनचर्या नहीं बदलती पूरा साल निकल जाता है
नए साल के आगमन पर फिर जश्न मनाते हैं
सुबह वैसे ही उठते हैं रात को वैसे ही सो जाते हैं
दिन भर करते हैं काम शाम को घर लौट आते हैं
मेहनत की कमाएंगे तभी तो पेट भर पाएंगे
साल दर साल आते है और गुज़र जाते हैं
इस वर्ष ऐसा क्या होगा जो पहले नहीं हुआ है
सूरज वैसे ही निकलेगा चांद वैसे ही मुस्कुराएगा
अमीर के जनाजे में तो लोग होंगे दुनियाँ भर के
गरीब बेचारे को तो कोई कांधा देने भी नहीं आएगा
ये आदि हो चकी हैं,
सत्ता सुख की,
जैसे आदि हो जाता है,
कोई शराबी, शराब का,
कोई व्यभिचारी, वेश्या का,
कोई अफीमची, अफीम का,
कुछ-कुछ वैसे ही,
ये भी हो चली हैं।
लाल और मखमली कारपेट
पर चलते-चलते,
ये कपड़े, शरीर और रक्त का
भेद भूल चुकी हैं।
ये भोगती हैं
जनता की ताकत को
एक परजीवी की भाँति।
जीती हैं बड़ी ही शान से
जैसे जोंक जीती है,
किसी अन्य जीव के रक्त पर।
ये सफेद जोंक भी
मेहनतकशों के खून पर ही
जिंदा रहती हैं।
ये जोंक समय के बहाव में
अपना तालाब,
अक्सर बदलती रहती हैं।
आज पता चल रहा है ,
सब कुछ था उस दौर में
कुछ था ही नहीं,
जिस दौर में ऐसा लगता था |
बेहतर हासिल करेंगे,
सोचतें थे दोस्तों के साथ
रेत सी फिसल रही जिंदगी,
लग नहीं रहा कुछ हाथ ||
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