बेटियां पिता के
बाग की वो
तितलियां है
जो एक दिन
उस बाग को
छोड़कर
दूसरे बागवां में
चली जाती है
उस बागवां को
महकाने के लिए
चमकाने के लिए
यही दस्तूर है
हमारा और
चाहिए हमें एक बेटी
ये दस्तूर निभाने के लिए।।
Written By Manoj Bathre , Posted on 10.05.2021
किसी से हो गया है प्यार क्या कहने
तड़पता है दिले-बीमार क्या कहने
रहा करते थे जो चुपचाप महफ़िल में
वही करते हैं हमसे रार क्या कहने
कभी गुस्सा कभी नाराज़ हो जाना
बढ़ा तक़रार से ही प्यार क्या कहने
उसी पर छत टिकी थी आशियाने की
जुदा कर दी वही दीवार क्या कहने
मेरा जिसने वफ़ा का क़ाफ़िला लूटा
वफ़ा की उसको है दरकार क्या कहने
यक़ीनन आपकी मर्ज़ी चलेगी अब
बनी है आपकी सरकार क्या कहने
किसी को वो समझ आया नहींं `आनन्द`
पहेली सा था जो किरदार क्या कहने
Written By Anand Kishore, Posted on 11.05.2021
अकेलापन वही है,
जब कोई नजर ना आये,
अकेलापन वही है,
जब हर नजारा सूना हो जाये,
है अकेलापन वो भी
जब बहुत दूर साथ चलने के बाद
अकेले लौटना पड़ जाये,
है अकेलापन वो भी
जब बहुत से लोग घेरे हो,
फिर हौले से सब गायब हो जायें,
है अकेलापन वो भी
जब स्वावलंबन के नाम पर
आपको तन्हा छोड़ दिया जाये,
अकेलापन वो भी है
जब आपकी मजबूती के आधार पर
आपकी चिन्ता ही न की जाये,
अकेलापन वो भी है
जब जरूरत से ज्यादा आपको
समझदार, समझ लिया जाये,
है अकेलापन वो निश्चित ही
जब कोई अपको तन्हा कर दिया जाये,
है अकेलापन वो भी
जब आपके दुख अपनों को
बस नाटक नजर आयें,
अकेलापन वो भी है
जब विश्वास करो बहुत किसी पर
और वो खंजर घौंप जाये,
अकेलापन वो भी है
जब आपकी तरक्की के नाम पर
कोई आप पर जिम्मेदारी सौंप जाये,
अकेलापन वो ही है
जब मस्तिष्क से तन तक की
गतिविधियाँ खुद महसूस की जायें,
अकेलापन वो ही है
जब आपकी खोखली हंसी में
उदासी साफ नजर आये ....।
Written By Sumit Singh Pawar, Posted on 29.05.2021
तुम सर्द रात में अलाव सी जलती हुई
में मोम सा आगोश में पिघलता गया।
हिज्र का दोर इस मुकाम पे ले आया
तेरे तसब्बुर का मुन्तजिर होता गया।
कभी आ मेरी धड़कनो की सदायें सुन
में सेहरा में अश्खो का समंदर बहाता गया।
मुझसे जुदा तुम कहा मशरूफ हो गये
शहर में चाँद भी बादलो में खोता गया।
तुम पास भी हो मेरे ओर मुझसे जुदा भी
इसी कश्मकश में ज़िन्दगी गुजारता गया।
दूसरों की खुशी देख कर भी जो खुश नहीं हो पाता है
दूसरों के सुख दुख में कभी जो शामिल होने नहीं जाता है
बड़ों के पास जो नहीं बैठता मन ही मन जो घुटता जाता है
हमेशा रहता है बुझा सा संगीत भी जिसको नहीं सुहाता है
नई बातें जो नहीं सीखना चाहता
बच्चों से मिलकर जो नहीं मुस्कुराता है
प्रकृति को देखकर भी खुश नहीं होता
अकेले में रहकर समय बिताता है
भंवरे की गुंजन जो नहीं सुन पाता है
कोयल का गाना भी जिसको नहीं सुहाता है
बारिश की बूंदें भी जिसको अच्छी नहीं लगती
खुशी में जो कभी नहीं गुनगुनाता है
पुरानी यादों को याद करके भी
क्यों नहीं वह मुस्कुराता है
नन्हें शिशु का रोना भी बेचैन नहीं कर पाता जिसे
यारों से मिलकर भी जो नहीं खिलखिलाता है
पतझड़ की पत्तियों की वो सरसराहट
बसंत में हर तरफ फैली वो मुस्कुराहट
जड़बत सा बैठा रहता है जो एक कोने में
कानों पे उसके असर नहीं कर पाती कोई आहट
संवेदनहीन सा वो मौत के पास चला जा रहा
हर आने वाला पल उसे अपने पास बुला रहा
मौत दे रही दस्तक चुपके चुपके दरवाजे पर उसके
मर तो कब का चुका है अब तो बस लाश ढो रहा
तुम अपने पास ही रक्खो फिलोसफी अपनी!
हमें तो जान से प्यारी थी दोस्ती अपनी!
ज़माने वालो नए वक़्त का कन्हैया है,
अलग ही राग बजाता है बाँसुरी अपनी!
अगर पड़ेगी ज़रूरत अदू न माना बात,
लहू से उसके बुझा लेंगे तिश्नगी अपनी!
यही तो रोना है सुनता नहीं है बात कोई,
ग़रीब किस से कहे जाके बेबसी अपनी!
न चाह जीने की थी कुछ न मरने का कुछ गम,
तमाम उम्र रहे ढो़ते ज़िन्दगी अपनी!
हैं जैसे रोते यहाँ सब ही तू भी रोए गा,
तेरी ये काम न आएगी आशिक़ी अपनी!
फिर इसके बाद ही ग़ैरों से आप कुछ कहना,
तलाश ख़ुद में करें पहले हर कमी अपनी!
तुम्हारी कट रही अच्छी तो शुक्र रब का करो,
यहाँ तो मौत से बदतर है ज़िन्दगी अपनी!
ज़माने वालो ग़ज़ल इस लिए ही कहता हूँ,
किसी के काम तो आएगी शायरी अपनी!
ख़ुदा ने चाहा, लकी का नसीब जागे गा,
कभी तो होगी मदीने में हाज़री अपनी!
सच में ऐसा होता है क्या
होता है क्या कोई संतुष्ट मन
कहा होता है ऐसा मन
क्या भक्ति में होता है संतुष्ट मन?
जब भक्त ईश्वर की कामना करता है
उनके प्रेम से परिपूर्ण होता है तब
उन्हें समक्ष न पा वो संतुष्ट होता है क्या?
तब कहा होता है संतुष्ट मन
क्या शक्ति में होता है संतुष्ट मन?
जब शक्ति से सर्वस्व जीत लिया पर
खुद को कहीं हार दिया,या खो दिया
शक्ति से भी किसी को न पा पाएं
तब मन संतुष्ट होता है क्या?
ज्ञान में होता होगा शायद संतुष्ट मन
मगर कैसे?
ज्ञान अभिमान भी तो लाता है साथ में
अभिमान कब संतुष्ट हुआ कभी इस जग में
ज्ञान में भी अभिमान,धन में भी अभिमान
ज्ञान और धन से सब प्राप्त कर भी
मन खोजता रहता है संतुष्ट मन।।
माँ की ममता या पिता के दायित्व में
होता है क्या संतुष्ट मन मगर कैसे होगा
हर माँ बाप सोचते हैं कि कुछ और अच्छा दे पाएं अपने बच्चों को,
कुछ रह तो नहीं गया,होगा वहां संतुष्ट मन कहां है?
या फिर पत्नी के समर्पण में या पति के प्रेम में
नहीं नहीं ये परिकल्पना हीं असंभव है
ये तो शायद जग का सबसे असंतुष्ट नाता है
इसमें संतुष्ट मन कहा संभव है
कुछ न कुछ खाली रह जाता है यहाँ।।
शायद बच्चों में होता होगा संतुष्ट मन,
नहीं वो तो हर दूसरे पल नाराज हो जाते हैं
मुँह फुला लेते हैं और इस लाड़ को वो जीवन भर दिखाते हैं।
गुरु की शिक्षा में या शिष्य की दीक्षा में
नहीं आज के युग में इस रिश्ते में भी संतुष्ट मन नहीं होता
समाज के विकृत रूप में तो सब असंतुष्ट हैं
वहां पीटेंगे बस निज स्वार्थ का स्थान है
मित्रता की छॉंव में भी बस तब तक हीं होता है
संतुष्ट मन जब तक वहां प्रतिस्पर्धा घर नहीं करती
और कभी कभी अपने मित्र क़ी
किसी और के साथ मित्रता मन को स्वीकार नहीं होती
और फिर मिलता है वही असंतुष्ट मन।।
सच मानिये तो बस मन की मिथ्या में होता है "संतुष्ट मन"
Written By Namrata Chaurasia, Posted on 03.05.2023काम हूँ करता, मेहनत कश हूँ
विश्वकर्मा का मैं आशीष हूँ
अभियंताओं की ऊंची पढ़ाई को
प्रत्यक्ष में लाता, जीवंत स्वरूप हूँ
कागज पर उकरी आकृतियों को
लाता धरा पर , वो भी मैं ही हूँ
नित शारीरिक श्रम को करता
मजे से दूर मजदूर वो मैं हूँ।।
तीखी धूप में जलता हूँ मैं
आंधी-वर्षा भी सहता हूँ
शोर-शराबा है ध्वनि प्रदूषण पर
ऐसे कितने ही प्रदूषणों में रहता हूँ
तर-वतर, लथ-पथ पसीनों में
तिरष्कार भी मैं सहता हूँ
ऊंचे सपने, वेवश आंखे
मैं ही मजदूर तो कहलाता हूँ।।
सेंट्रल विस्ता, राम का मंदिर
बन रहा है मजदूरों के, दम पर
ऊंची भवनें, पूल बड़े-बड़े
कारखानों का बोझ है हम पर
स्वच्छ्ता का हर जोर हमीं से
हम ही मिलतें हैं, हर खेतों पर
फिर भी मजदूर, मजबूर भला क्यों?
ये सवाल हम छोड़ें किस पर?
ये सवाल हम छोड़ें किस पर?
नहीं चल सकते हम दो चेहरे लेकर,
बेशक अकेले रह जाएं गम नहीं
नहीं जी सकते दोहरी सोच लेकर,
भले ही सब छूट जाए गम नहीं
मिला यहां हर कोई हमदर्द बनकर,
दिल से दर्द को समझे, ऐसा यहां कोई नहीं
अब तो ये आलम है कि हर रिश्ता कारोबार है,
घाटा जहां जिसको दिख जाए, फिर वो साथ चलता नहीं
आपके बढ़ते कदमों के कायल हजारों यहां,
गहरी खामोशी को जो तोड़ पाए, खुद के सिवा कोई नहीं
बनाना है हमसफर तो खुद को बना लो वक्त रहते,
वर्ना उम्र ढल जाए, तो फिर वक्त का भी पता कोई नहीं
कलमकारों ने रचना को स्वरचित एवं मौलिक बताते हुए इसे स्वयं पोस्ट किया है। इस पोस्ट में रचनाकार ने अपने व्यक्तिगत विचार प्रकट किए हैं। पोस्ट में पाई गई चूक या त्रुटियों के लिए 'हिन्दी बोल इंडिया' किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं है। इस रचना को कॉपी कर अन्य जगह पर उपयोग करने से पहले कलमकार की अनुमति अवश्य लें।