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Wednesday, 20 September 2023

  1. कौन टिक पाएगा यूँ बेगै़रती के सामने
  2. जब से बागी हो गए
  3. दर्द ए गम लिखा ना जाए
  4. आत्म बोध
  5. मेरा प्यारा भारत देश
  6. आईने को शर्मसार बार बार किया
  7. खोज
  8. इस छोटी सी दुनिया की संसार हो तुम

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कौन टिक पाए गा यूँ बेग़ैरती के सामने!
सौ मसाइल हैं खड़े अब आदमी के सामने! 

मेरे दामन में गुनाहों के सिवा कुछ भी नहीं,
लेके जाऊँगा भला क्या मैं नबी के सामने!

हिन्दी रस्मुल ख़त में सारे काम अब होने लगे,
अब न उर्दू चल सकेगी फारसी के सामने!

जानते कुछ भी नहीं पर ज़ोम इतना किसलिए,
मत करो बकवास तुम तो फलसफी के सामने!

कह रहे थे सारे कैसे फँस गए इस जाल में,
सैकड़ों हैं जाँबलब इस आशिक़ी के सामने!

था बहुत बातूनी वो पर आज कल चुपचाप है,
मैं भी चुप सा हो गया हूँ ख़ामशी के सामने!

भाग कर के जान वो अपनी बचा सकता नहीं,
जब खड़ी हो मौत आकर के किसी के सामने!

ऐ ग़रीबी मुझको यह एहसास अब होने लगा,
हर क़दम पर मुश्किलें हैं ज़िदगी के सामने!*

आज उनसे बात कह दी है लकी ने साफ साफ,
ये मुहब्बत चीज़ क्या है दोस्ती के सामने!

Written By Mohammad Sagheer, Posted on 20.02.2022

जब से बागी हो गए

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Rupendra Gour
~ रूपेन्द्र गौर

आज की पोस्ट: 20 September 2023

जब से बागी हो गए, हिंदी से हम लोग।
तब से इंग्लिश संस्कृति, रहे बेवजह भोग।।

जब से बागी हो गए, गैस तेल के दाम।
तब से ही संताप है, झेल रही आवाम।।

जब से बागी हो गए, कुछ अलबेले लोग।
तब से ही वो यातना, खूब रहे हैं भोग।।

जब से बागी हो गए, तेवर और विचार।
तब से अपने आप का, सुधर गया संसार।।

जब से बागी हो गए, खेल कूद से बाल।
तब से मोबाइल पकड़, सारे मालामाल।।

जब से बागी हो गए, पेड़ प्रकृति जल धार।
तापमान तब से हुआ, लो पचास के पार।।

जब से बागी हो गईं, जिन जिन की औलाद।
तब से माता अरु पिता, ग्रसित हुए अवसाद।।

जब से बागी हो गए, हमसे अपने अंग।
तब से ही काफूर है, हमसे यहाॅं उमंग।।

जब से बागी हो गए, प्रेम और व्यवहार।
लगे तभी से उगलने, लोगों पर अंगार।।

Written By Rupendra Gour, Posted on 21.05.2022

मौन किस तरह रहूं,

बतलाया ना जाए।

दर्द ए गम लिखूं किस तरह,

लिखा ना जाए।

 

अमावश के रैन में,

उजाले की आशा कहां।

निद्रा भरी स्वप्न में,

तुझे खोने की है बात कहाँ।

हो स्पर्श तेरे हाथों का,

और हो स्पंदन तेरे भावों का।

संग तुम्हारे चलना हमने,

स्वीकार किया है जीवन में।

अब मिले अमृत या हलाहल।।

 

मौन किस तरह रहूं,

यह बतलाया ना जाए।

दर्द ए गम लिखूं किस तरह,

लिखा ना जाए।

 

कोई करे ना करे,

जीवन पर विस्मय।

मुझे लिखना है,

इस जीवन का आशय।

हृदय में रखूं मैं कोरापन,

और बनाऊं जीवन को दर्पण।

साफ चित् और उदारी पन,

जीवन में ना आए खालीपन।

और बनूं मैं दीवानापन।।

 

मौन किस तरह रहूं,

यह बतलाया ना जाए।

दर्द ए गम लिखूं किस तरह,

लिखा ना जाए।

Written By Subhash Kumar Kushwaha, Posted on 16.06.2022

आत्म बोध

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Lalan Singh
~ ललन प्रसाद सिंह

आज की पोस्ट: 20 September 2023

सुखिआ की अव्यक्त अंतर्वेदना थी,

   ``गधे बढ़ाए हो, उसी तरह आदमी भी बढ़ा लो, इतने सारे कपड़े अकेले मैं रोज धो-धो कर कब तक मरती रहूँगी ? कहती हूँ ! कुछ घर छोड़ दो। पर यह है कि मानता ही नहीं। दिन, सप्ताह, महीने और साल बीत गए इंतजार करते-करते, पर यह तो आदमी रखने का नाम ही नहीं लेता।``

   परंतु ये तर्कसंगत शब्द उसके हलक के बाहर नहीं आ पाते थे। वह अपना दाम्पत्य और व्यवसाय का खयाल कर इसे नियति मान लेती थी। शायद ज़िंदगी का सफ़र इन्हीं पगडंडियों पर नीयत हो।
    वह अनवरत एक के बाद एक कपड़े पाट पर पटकते जा रही थी। कदाचित ये  व्यथित शब्द उसके रगों में ऊर्जा पैदा कर रहे थे, जिसे वह ग्राहकों के वस्त्रों के पटकने में व्यय कर रही थी। बगल में बैठा उसका पति बाढ़ू एक बड़े बर्तन में नील और पानी फेंटते हुए बोला, “सुनती हो! ये दोनों गधे अपनी हरकत से बाज नहीं आएंगे, आज दूसरा दिन है न! इनके उपवास का!----------- मेरी इच्छा थी कि एकाध दिन और रह जाते तो दुरुस्त हो जाते।``

गुस्सायी सुखिआ को सामने मासूम बने खड़े दोनों गधों को देख, दया या गई। 

“नहीं, नहीं, अब इन पर ज्यादा अत्याचार ना करो!” सुखिआ को अपने स्वर में उसके लिए पीड़ा कि संवेदना देते देख बाढ़ू ने अपनी जुबान थोड़ी और तल्ख की “नहीं! आज भर इन निक्कमों को उपवास कराना जरूरी है।``

दोनों गधे निर्विकार भाव से पागुर करते हुए खड़े, जैसे सब आत्मसात कर रहें हो। मालकिन के अनुनय को इतनी आसानी से ठुकराते देख मानो उनके चेहरे कि दारुण-त्रासदी अंदर ही अंदर अंतर्वेग और मूक विद्रोह की कहानी गढ़ रही हो। बाढ़ू को मजा चखाने का संकल्प मन-ही-मन ले रहे हों। 

     शाम को बाढ़ू उन दोनों पर कपड़ा लादकर घर की ओर चला। तीनों शहर कि गंदगी बहने वाले नाले के किनारे- किनारे चले जा रहे थे। मौका पाते ही दोनों गधे अपने पिछले पाँवों से दुलत्ती का नजाकत किये और नाले में कूद पड़े। बाढ़ू परेशान। कपड़े तो सारे-के-सारे गंदे हो ही गए परंतु दुर्भाग्य से ये दोनों पकड़े गए। वह इन्हें दरवाजे पर बांध कर डंडे से धुलाई की तैयारी में लगा था। तभी सुखिआ अंदर से बाहर आयी। वस्तुस्थिति देख वह खौल गई,       “करमजले! मैंने कहा था न! अब और अत्याचार ये नहीं सहेंगे। ------------- अत्याचार की भी हद होती है। अरे! ये थोड़े ही सुखिआ है, चाहे जितना भी ला कर दे दो, पाट पर पटकती रहे, --------- अरे अपराधी हो जाएंगे !``

    उसमें आज सुखिआ की बात अंदर तक उतर आई थी। वह डंडा फेंक कर तत्क्षण उसके आगे चारा की टोकरी डाल दिया।जिंदगी के सफर का सही मार्ग प्रशस्त होते देख दोनों गधे विरोध के सुख की अनुभूति करते हुए भूँसा चबाने लगे। 

Written By Lalan Singh, Posted on 06.06.2022

मेंरा प्यारा भारत देश सभी देशों मे यह नम्बर एक, 
मिलकर रहतें हमसब एक इसमें नहीं है कोई भेद।
भाषाऍं यहां बहुत अनेंक पर रंग रूप सबका एक,
पहनावा भी सबका भिन्न पैदा होता यहां पर अन्न।।

हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई रहतें सभी भाई-भाई,
मन्दिर मस्जिद चर्च अपार गुरूद्वारा स्वर्ग का द्वार।
हिंदी, इगंलिश और पंजाबी भाषाऐ उर्दू  गुजराती,
तमिल मराठी कन्नड़ बॅंगाली बोले कोई राजस्थानी।। 

राज्यों का ख़ास पहचान धोती कुर्ता लूॅंगी बनियान,
घाघरा चूनरी साड़ी और सूट पहनावा यहां अनोख।
दाल बाटी एवं चूरमा कहीं बनता बिरियानी रायता,
लस्सी आलू-पराठा तो कही पर इडली और ड़ोसा।।

ईद दीवाली क्रिस्मस मनाते सतगुरु को शीष नवाते,
भंगड़ा घूमर औणम कव्वाली  गरबा नृत्य ये करतें।
सेना में है जवान अनेंक  बहादूरी मे पीछे नही एक,
दुश्मनों को कर देते ढ़ेर पीछे कभी नही रखते  पैर।।

बलिदानों की कई कहानियाॅं देश सोने की चिड़ियाॅं, 
सारा सच बता रहें है हम वतन नहीं किसी से कम।
आज अस्त्र शस्त्रों से सजी सेनाऍं फैली है ये सर्वत्र,
अनेकता में भी एकता वाला  देश है ये भारत वर्ष।।

तिरंगा है देश की शान इस पर सबको है अभिमान, 
आन बान शान नहीं जाऍं  दुश्मन के छक्के छुड़ाऍं।
भारत माँ के हम है लाल सेवा करते दिन और रात,
में भी हूॅं इस सैना का वीर रहता हूँ अजमेर शरीफ।।  

Written By Ganpat Lal, Posted on 18.05.2022

रिश्तो को यूं तार-तार उसने किया 
नाव में छेद बार-बार उसने किया।

शकुनि के पासो को समझ ना पाया
ऐतबार उसपे हमने  बार बार किया।

चेहरा बदल बदल कर लूटा मुझको
 आईने को शर्मसार बार-बार किया।

उसकी साज़िशों का शिकार हुआ
ख़ंजर से कत्ल उसने बार बार किया।

उसके गुनाहों को माफ कर `साहिल`
डूबते डूबते ये वादा  बार बार किया।

Written By Kamal Rathore, Posted on 26.05.2022

खोज

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Preeti Sharma
~ प्रीति शर्मा "असीम"

आज की पोस्ट: 20 September 2023

फिर से अपनी पहचान को कुरेद रहा हूँ।
मैं मझधारों से साहिल का पता ढूंढ रहा हूँ।

जिंदगी का हर एक मील पत्थर बेगाना-सा हो गया ।
मुझ से मेरा चेहरा ही अंजाना-सा हो गया।

मैं फिर से इस खामोशी को तोड़ रहा हूँ।
खुद से कब मिला था आखिरी बार यह सवाल पूछ रहा हूँ।

फिर से अपनी पहचान को कुरेद रहा हूँ।
अजीब कशमकश है मैं हूँ ।
मैं था भी कभी ?
यह सवाल फिर से मैं आज खुद से पूछ रहा हूँ।

यह कौन काट रहा बार-बार टुकड़ों में
मैं फिर भी उन किरचों को जोड़ रहा हूँ।

न जाने कहां से कहां कब ले गई जिंदगी
मैं आज भी कदमों के निशान ढूंढ रहा हूँ।

Written By Preeti Sharma, Posted on 20.09.2023

गंगा की धार के किनारे हिंदी डिपार्टमेंट की प्यार हो तुम,
इस छोटी सी दुनिया की संसार हो तुम...
पीतल और लाल रंग में स्थापत्य कला की मिशाल हो तुम..
22 डिपार्टमेंट की मनोहार और पर्शियन का संसार हो तुम..
अशोक राजपथ की गलियां और कालीघाट की गुलज़ार हो तुम
इस छोटी सी दुनिया की संसार हो तुम ...
शिक्षको का प्यार तो मैम लोग की दुलार हो तुम..
दरभंगा महाराज का संसार, तो मिथिला का घरबार हो तुम...
इस छोटी सी दुनिया की संसार हो तुम..
हिंदी विभाग तेरा दर्पण तो मैथिली की खेवनहार हो तुम..
गंगा के किनारे, 12 बीघा में,
इस छोटी सी दुनिया की संसार हो तुम..
गोल्ड मेडलिस्टो की मशीन तो टॉपरों की आविष्कार हो तुम,
ऐ दरभंगा हाउस, पटना विश्वविद्यालय की गंधार हो तुम !

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संदर्भ- पटना विश्वविद्यालय (दरभंगा हाउस)

Written By Digambar Singh, Posted on 20.09.2023

Disclaimer

कलमकारों ने रचना को स्वरचित एवं मौलिक बताते हुए इसे स्वयं पोस्ट किया है। इस पोस्ट में रचनाकार ने अपने व्यक्तिगत विचार प्रकट किए हैं। पोस्ट में पाई गई चूक या त्रुटियों के लिए 'हिन्दी बोल इंडिया' किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं है। इस रचना को कॉपी कर अन्य जगह पर उपयोग करने से पहले कलमकार की अनुमति अवश्य लें।

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