माह साकने के आते ही,
बढ़ जाती है सबकी चिन्ता,
जिस बहना को न भाई अपना,
जिस भाई को न बहना अपना।
उनके मन आता हरदम,
सावन में होता है झूलन।
साथ ही भाई-बहन का रक्षाबंधन।
रक्षाबंधन के नाम को सुनकर,
नैन अश्रु से भर जाता है।
और मन ही मन गुदगुदाने लगता,
कब जाएगा?
त्यौहारों का संवदिया सावन,
साथ रक्षाबन्धन को लेकर।
पवित्र त्योहारों में से एक है,
भाई-बहन का ये प्यारा बन्धन।
फिर भी ये बन्धन नहीं भाता उनको,
जिस भाई को ना बहना अपना,
चाँदी सोने का ना होकर,
और-
जिस बहना को ना भाई अपना।
उनका मन सदा-सर्वदा कहते रहता,
ईश्वर तो कितने निर्दयी हुए।
मुझको ना दिए कोई बहना अपना।
ना ही आभागिन को कोई भाई अपना।।
हाथ में संजाने सजवाने गहना,
वह गहना तो
होता कच्चे धागों का है।
नहीं चाहिए हमको,
यह उच्चेधागों का त्योहार।
यह सदा ही कहते रहता,
जिस बहन को ना भाई अपना।
और-
जिस भाई को ना बहन अपना।।
उसका मन सदा ही कहते रहता।
क्यों आते तू संवदिया सावन,
वर्षों से रूलाने हमको।
विनती हमेशा करते रहता,
मत आ संवदिया सावन,
संग रक्षाबंधन को लेकर।
संवदिया सावन कह जाता उनसे,
जिनको नहीं है कोई बहना।
और जिनको नहीं है भाई अपना।
हम तो आते खुशियों का संदेशा देने,
ना कि तुझे रुलाने।
बस, तुझको नहीं है भाई तो क्या,
तो समझ ले औरों को ही भाई अपना।
तुझको नहीं है बहना तो क्या?
औरों को ही समझ ले बहना अपना।
अब दे आज्ञा अभागिन बहना,
और दे अभागा भाई।
जा रे निर्मोही संवदिया सावन,
अब कभी मत आना तू।
यही तो इच्छा रखते सदा ही,
जिस भाई को ना बहना अपना,
और-
जिस बहना को ना भाई अपना।
Written By Subhash Kumar Kushwaha, Posted on 16.06.2022सेठ उसे देखते ही बिक्री काउन्टर को एक पुराने कपड़े से पोंछते हुए, सामने की पड़ी बेंच की और इशारा कर,अपने मुसकुराते चेहरे से बोल पड़ा,
“आइए साब! पधारिए साब! क्या सेवा करूँ?”
“बस कुछ नहीं, केवल छत्तीस नंबर का एक बानियान और एक पहनने लायक हल्के दाम का तौलिया चाहिए।”
“अभी दिखलाया!” कहकर सेठ फटाफट उसकी सेवा में लग गया। उसने अपनी पसंद की एक बनियान और तौलिया का कीमत क्रमशः एक सौ पांच और नब्बे रुपये चुकाया और चला गया।
एक चिरस्थायी, उधार खाता वाले ग्राहक को आता देख, सेठ ने पुनः एक बदले हुए अभिवादन में उसका स्वागत किया। उसे भी बनियान खरीदनी थी। सेठ जी ने दिखाना शुरू किया।
“इसका प्राइस बताओ सेठ जी?”
“यही लगभग एक सौ पचपन रुपये।”
“अरे, ये पचास-पचपन क्या लगा रखा है,एक सौ पच्चीस रख लो ?”
“बाप रे! इतना मार्जिन कहाँ आता है इस होजियरी के सामानों में हुजूर!पांच परसेंट के फिक्सड कमीशन पर ही यह धंधा टीका है”।
“अरे छोड़ो भाई, फिक्सड कमीशन की बात! बेचने वाले भाव की बात करो, आखिर परमानेन्ट ग्राहक होने के नाते कुछ मेरा भी तो रियायत का हक है?”
“भला मैंने कब कही रियायत न देने की बात! जहाँ तक मेरी गुंजाइश है उससे एक नया भी ज्यादा लेने की बात मैंने आप से कभी की है? अरे, नफे के लिए सारा संसार पड़ा है, आपसे ही नफा लेने की कसम थोड़े खाई है मैंने! -------------छोड़िए दस प्रतिशत बाद(घटाना)करके बीस रुपये कम लगा देते हैं। -------कितने पीस (नग) दूँ?”
उसके चेहरे पर रियायत ले लेने के भाव प्रगट होते हैं और वह स्वीकारोक्ति में सेठ को केवल ‘एक’ बनियान पैक करने की बात कहकर अपने उधार खाते वाली डायरी मँगवाता है।
डायरी में एक सौ पांच रुपये के बजाय एक सौ पैंतीस अंकित करते हुए उसे उसकी हार में भी जीत की अनुभूति हो रही थी। और वह दुकान से प्रसन्नचीत एक कृत्रिम मुस्कान लिए, दुकान से गंजी लेकर शहर की भीड़ मे समा गया।
Written By Lalan Singh, Posted on 05.06.2022जिसकी जैसी आस्था, वैसे ही व्यवहार।
कोई रक्खे मधुरता, कोई रखे कटार।।
जिसकी जैसी आस्था, वैसे बोले बोल।
कोई समझाए सहज, कोई गोलम गोल।।
जिसकी जैसी आस्था, वैसी रक्खे सोच।
कोई बोले सोचकर, कोई मारे चोंच।।
जिसकी जैसी आस्था, वैसा दे सम्मान।
कोई माने जानवर, कोई कहे इंसान।।
जिसकी जैसी आस्था, वैसी चले जुबान।
कोई कहता भीख तो, कोई कहता दान।।
जिसकी जैसी आस्था, उनके वैसे काम।
कहीं पुजे रावण बहुत, कहीं पूजें श्रीराम।।
जिसकी जैसी आस्था, वैसे मन के भाव।
कहीं लगाए लेप तो, कहीं बनाए घाव।।
जिसकी जैसी आस्था, जिसका जितना ज्ञान।
कोई देवे गालियाॅं, कोई करे बखान।।
जिसकी जैसी आस्था, वैसी दे सौगात।
कहीं करे दिल से मदद, कहीं कुठाराघात।।
हम आज तक थें महानगर चैन्नई,
आज अलविदा हम कहते है भाई।
मिले सबकी शुभ कामनाएँ बधाई,
चलते है अन्ना अब कर दो विदाई।।
मुस्कराते रहना चाहें कैसा भी हो पल,
खुशियाँ लेकर आऐ आने वाला ये कल।
जीवन के इस सफर में स्नेह मिलता रहें,
प्रेम भाव से सभी अपना काम करते रहें।।
उलझी पड़ी है हमारी जिंदगी ऐसे,
इन रेलगाड़ी की पटरियो की जेसे।
रास्ते बहुत देखे आने और जाने के,
समझ नहीं पा रहें कहा जाऐ कैसे।।
समय कभी किसी का भी बुरा नही होता,
वही क्षण, समय हमें बहुत कुछ सिखाता।
सिखलाई में कभी भी निराशा नही लाना,
चिंता इतनी ही करना कि काम हो जाना।।
आपका प्यार और रहें आशीर्वाद,
सभी साथियों का करता धन्यवाद।
मिलेंगे फिर जल्द मिलाऐगा ईश्वर,
देखना कभी यू टयूब और ट्वीटर।।
समय के खेल में
कब हम उलझते चले जाते है।
हमें ये ज्ञात भी नहीं होता है,
और वो आगे कि ओर
बस बढ़ते चला जाता है।
हम उसके साथ चले तो ठीक है
वरना वो अपनी रफ्तार में चलते
चला जाता है।
वो जानता है बखूबी अकेले चलना
इसलिए अपने धुन में वो
मदमस्त सा रहता हैं।
वो जानता है अपनी कीमत
इसलिए खुद को क़ीमती समझता है।
जानता है लोगों को है,
उसकी जरूरत होती ही रहती
इसलिए इत्मिनान से वो बेधड़क
आगे की ओर
बस बढ़ता चला जाता हैं।
ना किसी के साथ की अरमान लगाए
बस अपने ही धुन में
मस्तमौला बनकर फिरते चला जाता हैं।
कुछ खुश हुए
कुछ नाराज़ हुए
कुछ चुप हुए
कुछ आवाज दिए
कुछ छोड़ चले
कुछ साथ चले
कुछ बदनाम किए
कुछ पहचान दिए
कुछ गिराने में लगे
कुछ उठाने में लगे
कुछ बिठाने में लगे
कुछ पहचानने में लगे
कुछ हँसाने में लगे
कुछ रुलाने में लगे
कुछ वसाने में लगे
कुछ उजाड़ने में लगे
यह जिंदगी भोली कभी
यह जिंदगी डोली कभी
यह जिंदगी रेतीली कभी
यह जिंदगी पतीली कभी
यह जिंदगी हठीली कभी
यह जिंदगी रपटीली कभी
यह जिंदगी पीली कभी
यह जिंदगी खिली कभी
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