मनभावन सावन आते ही,
रिमझिम बारिश आती है।
हरे भरे पल्लवित उपवन में,
रौनक अनूठी छा जाती है।...
सूखी शाखाओं पर भी,
कोंपल नाज़ुक आती है।
भरमार सरीसृपों सहित,
कीट पतिंगों की छाती है।
जल आवक से जलाशयों में,
कमल-कुमुदिनी मदमाती है।
लबालब देख पोखर का छोर,
जलीय जीव मेंढकी हर्षाती है।
शुष्क पड़ी मरुधरा में फसलें,
मोठ-बाजरी की लहलहाती हैं।
मनभावन सावन आते ही,
रिमझिम बारिश आती है।...
बोले दादुर मोर पपीहा पावस में,
कोयल ने अक्सर मौन साधी हैं।
चंपा चमेली जूही की खुशबू,
अंतर्मन मदहोशी ख़ूब लाती है।
झूला झूलती सखियां बगिया में,
हो उल्लसित गीत मल्हार गाती है।
नवपरिणीत सखी से कर ठिठोली,
प्रियतम की यादों से लजाती है।
निर्झरणी तीर्थस्थल देवालयों पर,
देवाधिदेव महादेव भक्ति भाती है।
मनभावन सावन आते ही,
रिमझिम बारिश आती है।
याद माज़ी की दिलाता आईना
राज़ चुपके से बताता आईना
झुर्रियां चेहरे की देखीं जिस घड़ी
धड़कनें दिल की बढ़ाता आईना
इसकी फ़ितरत भी यही मशहूर है
सच ख़रा सबको दिखाता आईना
सबको उनके अक्स दिखलाकर के फिर
धीरे - धीरे मुस्कुराता आईना
हो जवाँ बूढ़ा या मुफ़लिस या धनी
नाज़ सबके ही उठाता आईना
कर रहा है फ़र्ज़ पूरा सिर्फ़ वो
दिल किसी का कब दुखाता आईना
जो भी जैसा है नज़र आता वही
किसको लेकिन आज़माता आईना
देखकर शीशे में अपना क़ल्ब फिर
ख़ुद ही अक्सर चौंक जाता आईना
फ़ायदा `आनन्द` होगा उम्र भर
सीख लो जो भी सिखाता आईना
शब्दार्थ:- क़ल्ब = core of heart
Written By Anand Kishore, Posted on 03.06.2021
जिंदगी का एक वर्ष और कम हो गया
इंसान यह सोचते न जाने कहाँ खो गया
उम्र बीत गई एक एक साल करते करते
बचपन जवानी निकल गये इंसान बूढ़ा हो गया
मनाते हैं खुशियां हर वर्ष हम
जन्म दिवस जब किसी का आता है
इस खुशी के चक्कर में भूल जाते हैं
जीवन का एक वर्ष कम हो जाता है
खुश होते हैं बहुत उस दिन
सब दोस्तों को बुलाते हैं
जमती है खूब महफ़िल रात को
मांस और मदिरा उड़ाते हैं
पंडित जी आते है पूजा अर्चना करवाते हैं
ग्रह टल जाएंगे ऐसा वह बतलाते हैं
जिंदगी अपनी का भरोसा नहीं एक पल का
दूसरों की साँसों को आगे बढ़ाते हैं
जन्म दिन यदि मनाना है तो
भूखे नंगे को करो तुम दान
दान दिया हुआ ही काम आएगा
छूटने लगेंगे जब शरीर से प्राण
जादूगरनी
छलकाती फिरती
रसगगरी।
रस की वर्षा
करती रहती है
घर-घर में,
टोने-टुटके
करती रहती है
मृदु स्वर में,
मधुपात्रों में
गरल पिलाती है
हर नगरी।
जाने कितने
रूप धरे फिरते
रति-अनंग,
जर्जर काया,
किन्तु गगनचुंबी
मन-विहंग,
रास-रंग में
नख-शिख डूबी है
मति सगरी।
चलना होगा
अग्निपथों पर भी
तन-मन से,
चुनना होगा
बिखरे सौरभ को
कण-कण से,
अरी जिन्दगी!
कब तक सोयेगी
अब जग री !
बिछड़ गए जो साथी हम से
नजर ना आये फिर वो कसम से
जग में आये हाथ फैलाये,
सब कुछ छिना हम से हाय,
टूट गया सपनों का मंदिर
ख़ामोशी में कह न पाए !
टूटी फूटी किस्मत पाई ,
प्यार रूप में मिली जुदाई ,
ऐसा गम न मिले किसी को
चाहे मिले दुश्मन खुदाई !
अगर आज ऐसा न होता ,
जग न हँसता मैं न रोता,
जीवन के अनमोल मोती,
जा रहा हूँ आज मैं खोता !
आज निराशा ऐसी छाई,
कुछ नहीं है साथ में भाई ,
जीवन का सन्देश यही है
समझो दुखों की गहराई !
वो जो बन संवर के निकलते हैं घर से
अपना तो रोज कत्लेआम करते हैं
कल निशाना तीरे नजर था आज
सीधा निशाना तीरे जिगर जान करते हैं
इश्क में इतने मशगूल हैं कि
उनकी बेरूखी का भी एहतराम करते हैं
इश्क को कौन बांध सका है जंजीरों में गालिब
हम यहाँ इश्क बेखौफ खुले आम करते हैं
निकम्मा सा कहते हैं लोग हमें
कभी इश्क की गलियों में आना हुआ तो फिर देखें
इश्क के मरीज हमें यहाँ दुआ सलाम करते हैं
"इश्क की राह में गर रुक्सत हुए तो
लैला-मझनू से ऊपर नाम हो हमारा
ऐसे इश्क बीमा की मिन्नतें तमाम करते हैं
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