मीलों तक अकेले चले आये तो क्या हुआ?
मंजिलें फिर भी सटीक न पाये तो क्या हुआ?
सफर, अनुभव का भी कम नहीं है यहाँ
बेहतरीन मुसाफिर हम न हो पाये,तो क्या हुआ....?
हम चले, क्या इतना काफी नहीं है?
हम ठहरे नहीं, क्या ये खूबी नहीं है?
हम रोये नहीं, क्या ये मजबूती नहीं है?
हमारे हाथ बस तन्हाई आयी, तो क्या हुआ?
बेहतरीन मुसाफिर हम न हो पाये,तो क्या हुआ....?
ठोकरें खाकर भी खड़े हुये हैं,
ये दिक्कतें देखकर ही बड़े हुए हैं,
जाने कितने सपने,तृष्णा में गड़े हुये हैं,
हाथ कोई कश्ती न आयी, तो क्या हुआ?
बेहतरीन मुसाफिर हम न हो पाये,तो क्या हुआ....?
हमसफर हौले से बदलते चले गये,
कुछ छोड़ गये, कुछ पीछे रह गये,
मुड़कर देखा तो नजारे बदल गये,
होठों पर मुस्कान न आयी, तो क्या हुआ?
बेहतरीन मुसाफिर हम न हो पाये,तो क्या हुआ....?
सफर में होना बहुत जरूरी है,
क्रियान्वयन की यही डोरी है,
इसके बिना हर सोच अधूरी है,
हाथ सिर्फ मोहोब्बत ही आयी, तो क्या हुआ?
बेहतरीन मुसाफिर हम न हो पाये,तो क्या हुआ....?
Written By Sumit Singh Pawar, Posted on 22.09.2021
मेरी खुरदुरी कविताएं
उन कोमल हृदय के लिए है
जिनके सीने में प्यार, स्नेह का
दीपक जल रहा है
मेरी कविताएं सर्दी में
अलाव सी तपिश देती
ओर ठिठुरती रात में
चांद - तारों से बतियाने का
हौसला देती है।
कभी मेरी कविताएँ
थके हारे मुसाफिर को
नीम सी ठंडी छांव देती है
कभी मेरी कविताएं
फिर से उठकर चलने का
हौसला देती है।
कभी मेरी कविताएं
स्वयं की गुलामी से
आजाद होने का बिगुल बजाती है।
कभी मेरी कविताएं
कुएं के मेंढको को
बाहर आने का आमंत्रण देती है।
कभी मेरी कविताएं
नारी को अपनी शक्ति का
एहसास कराती है
कभी मेरी कविताएं
स्त्री को अपनी उड़ान भरने का
हौसला भर देती है।
कभी मेरी कविताएं
प्रेमियों को रास आती है
कभी मेरी कविताएं
प्रेमिका के प्रेम पत्रों में
उतार दी जाती है।
कभी मेरी कविताएं
समाज के द्वारा
नकार दी जाती है
कभी मेरी कविताएं
बिना पढ़े कूड़े के ढेर में
फेंक दी जाती है।
``मैं`` का दूसरा रूप है अहंकार
``मैं`` आदमी को डूबा गया
``मैं`` जब किसी में आ गई
उसका पतन करीब आ गया
बड़े बड़े देखे अहंकार में डूबे हुए
समय ने सबको मिट्टी में मिला दिया
थर थर कांपते थे लोग जिससे
वक्त ने उसको आईना दिखा दिया
ज़्यादा नहीं टिक पाया ``मैं`` में जो खो गया
शहंशाह समझने लगा था अपने आप को
सत्ता चली गई जब पूछता नही अब कोई
भूल गया था सत्ता के नशे में जो बाप को
``मैं`` जिस पर सवार हो जाता है
अच्छा बुरा फिर नज़र नहीं आता है
तारीफ करने वाले ही लगते हैं उसे अच्छे
सच्च कहने वाले को दूर भगाता है
चाटुकारों से हमेशा घिरा रहता
दूसरों की नहीं सुनता अपनी है कहता
मनमानी करता रहता जब देखो अपनी
घमंड में हमेशा वो चूर रहता
सत्ता ताकत और पैसा ``मैं`` को जन्म देता है
घमंड में चूर प्राणी की यह बुद्धि भ्रष्ट कर जाता है
``मैं`` को छोड़ कर जब तक कोई ``हम`` में समाता है
देर हो जाती है तब तक फिर बहुत पछताता है
वो ये क्यों भूल जाते हैं कि माँ भी एक औरत है!
जिसे कहती रही भाई उसी ने लूटी अस्मत है!
कफन में जेब कब्रों में तिजोरी तो नहीं होती,
किसी के साथ दुनिया से गई कब मालो दौलत है!
फिज़ाओं में यक़ीनन रंग फैले अपनी चाहत के,
हवा में ताज़गी है और दिन भी ख़ूबसूरत है!
तुम्हीं तो पंच ठहरे थे तो उँगली फिर उठी कैसे,
तुम्हारे फ़ैसलों पर आज मुझको होती हैरत है!
कहीं कुछ हो न जाए हादसा दिल है उदास अपना,
तबीयत में बवक़्ते शाम से थोड़ी हरारत है!
कोई भी मसअला चुप बैठने से हल नहीं होता,
दरिंदों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की ज़रूरत है!
है सूफी संतों की सोचें, इसे अपना लकी तूभी,
इबादत ही मुहब्बत है,मुहब्बत ही इबादत है!
मैं अपना अस्तित्व की तलाश में हूँ कब से
किसी सागर में तैरते हिम पिण्ड के समान
कभी लगता है कि हिम पिण्ड का ही सागर है
कभी लगता है कि सागर धीरे-धीरे जम कर
हिम पिण्ड में तब्दील हो रहा है
कभी दोनों ही एक दूसरे के पूरक लगते हैं
कभी दोनों एक दूसरे के एकदम विपरीत लगते हैं
और यही प्रक्रिया सदियों से जारी है
और मैं तो केवल द्रष्टा भर ही हूँ
जो केवल और केवल देखता मात्र है
दोनों की मात्रा को घटते और बढ़ते हुए
कभी लगता है कि दोनों का स्वरूप एक ही तो है
हाँ, उनका स्वभाव एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न है
और वह परिस्थितियों के अनुकूल खुद की ढाल लेता है
कभी ठोस तो कभी तरल
यह सब ही तो बनाता है उसे विरल
और लगता है कि मैं भी उसी विरल का अंश ही तो हूँ
मैंने अक्सर सत्ता में
बैठे लोगों को
मौन धारण करते देखा है
चीरहरण की घटना पर
नेत्रहीनों का जमघट देखा है
नजाने कहां गया वो ग्वाला,
जो भरी सभा मे आया था
एक नारी के स्वाभिमान को
राक्षसों से बचाया था।
फ़क़त एक नारी का नही
समस्त विश्व का अपमान है
सत्ता में बैठे लोगों की
कायरता का, यह परिणाम है
नजाने कब सत्ता में बैठे
धृतराष्ट्र की बुद्धि जागेगी?
गांधारी कब अपनी आंखों से
न्याय की पट्टी खोलेगी?
विदुर नीति और भीष्म प्रतिज्ञा
कब अपनी चुप्पी तोड़ेगी?
अब हथियार उठा लो तुम
अबला नही कहलाओगी
सत्ता में बैठे कुशासित
लोगों को तुम ही
धर्म का पाठ पढाओगी।
आज का कृष्ण कहां मिले,
कहां मिले यमुना तट की गोपियां,
कहां गोकुल वृंदावन सी गलियां
आज का कृष्ण कहां मिले,
न बंशी की धुन सुनने को,
न उलाहने कहीं से आज मिले।।
आज का कृष्ण कहां मिले,
कहां मिले सखा सुदामा और ग्वाले,
कहां बलदाऊ सा सच्चा साथ मिले,
आज का कृष्ण कहां मिले,
मिश्री, माखन,छाछ की गगरिया,
कहां यमुना तट पर रास मिले,
आज का कृष्ण कहां मिले,
राधा सा पवित्र प्रेम कहां मिले।।
भले को भला न कहना व बुरे को भी बुरा न कहना।
ये दुनिया खफ़ा हो जायेगी, सोम को सुरा न कहना।
है खाने का सलीका बदला, कांटे को छुरा न कहना।
यहां रास्ते हैं मखमली, कभी इन्हें खुरदुरा न कहना।
पर्यावरण भूरा हो चला है, भूल से भी हरा न कहना।
माया जाप करते हम व आप, धरा को मां न कहना।
बदला ये मौसम, सम है विषम, कभी ना न कहना।
ऊपर काले साए दिखते हैं, खुला आसमां न कहना।
ख़ाली है मन, ख़ूब है धन, ये हमने बताया न कहना।
वो अनदेखा सच तुम्हें, जो उसने दिखाया न कहना।
मौका संग लाए धोखा, वक्त ने समझाया न कहना।
बही-खाता वही बनाता, क्या खोया-पाया न कहना।
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